सनातन पूजा पद्धति: एक दिव्य रसायन शास्त्र और उसके विकृत प्रयोग !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

सनातन संस्कृति का मूल आधार अनुभव और अनुभूति है, न कि अंधविश्वास या कोरी औपचारिकता । हमारे मनीषी ऋषि-मुनि केवल दार्शनिक ही नहीं, अपितु इस ब्रह्मांड की ऊर्जा और चेतना के सबसे बड़े वैज्ञानिक थे । उन्होंने सृष्टि के प्रत्येक तत्व का गहन अध्ययन किया और यह पाया कि संपूर्ण ब्रह्मांड एक लय, एक ध्वनि (नाद) और एक ऊर्जा-प्रवाह पर आधारित है । इसी गहन ज्ञान से उन्होंने उन दिव्य प्रक्रियाओं को जन्म दिया, जिन्हें आज हम “पूजा पद्धति” के नाम से जानते हैं । यह पूजा पद्धतियाँ वास्तव में चेतना के प्रयोगशाला में किए जाने वाले प्रयोग हैं; एक प्रकार का दिव्य “रसायन शास्त्र” (Divine Chemistry), जिसका उद्देश्य मानव चेतना को ब्रह्मांडीय चेतना के साथ एकरूप करना है । प्रत्येक मंत्र एक विशिष्ट ध्वनि-तरंग (Sound Frequency) है, जिसे एक निश्चित क्रम में उच्चारित करने पर मस्तिष्क और ऊर्जा-शरीर में विशेष केंद्रक सक्रिय होते हैं ।

प्रत्येक मूर्ति या यंत्र एक विशेष ज्यामितीय संरचना (Geometric Pattern) है, जो ब्रह्मांडीय ऊर्जा को एक बिंदु पर केंद्रित करने वाले उपकरण की भाँति कार्य करता है । यज्ञ की अग्नि में दी जाने वाली प्रत्येक आहुति, जिसमें विशिष्ट जड़ी-बूटियाँ और सामग्री होती है, वातावरण के शोधन के साथ-साथ एक सूक्ष्म ऊर्जा क्षेत्र का निर्माण करती है । दीपक का प्रकाश, धूप और कपूर का सुगंधित धुआँ, शंख की ध्वनि, और पुष्पों के रंग – यह सब मात्र सजावट की वस्तुएँ नहीं, अपितु इस दिव्य रासायनिक प्रक्रिया के उत्प्रेरक (Catalyst) हैं जो साधक की पाँचों इंद्रियों को सांसारिक विषयों से हटाकर एक दिव्य अनुभूति की ओर केंद्रित करते हैं । इस पूरी प्रक्रिया का एक सटीक और पूर्वनिर्धारित परिणाम होता है – चित्त की शुद्धि, मन की शांति, ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन और एक असीम आनंद की अनुभूति । यह एक ऐसा विज्ञान है जिसमें यदि प्रक्रिया के प्रत्येक चरण का सही विधि-विधान, शुद्ध भाव और पूर्ण श्रद्धा के साथ पालन किया जाए, तो परिणाम सुनिश्चित है । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में यदि सही अनुपात में दो रसायन मिलाए जाएँ, तो तीसरा अपेक्षित उत्पाद अवश्य ही बनेगा ।

किन्तु आज विडंबना यह है कि चेतना के इस सर्वोच्च विज्ञान को, इस दिव्य रसायन शास्त्र को, सबसे अधिक उन्हीं लोगों द्वारा विकृत और खंडित किया जा रहा है, जिन पर इसके संरक्षण और सही मार्गदर्शन का उत्तरदायित्व था । आपने सत्य ही कहा है कि “सक्षम एवं तथाकथित मार्गदर्शक लोगों” के द्वारा इसका निरंतर उल्लंघन हो रहा है । आज पूजा-पाठ एक आंतरिक अनुभूति की यात्रा न रहकर एक बाहरी प्रदर्शन और सामाजिक प्रतिष्ठा का विषय बन गई है ।

यज्ञ और अनुष्ठान की भव्यता इस बात से आँकी जाती है कि उसमें कितना धन व्यय हुआ, न कि इस बात से कि उसमें मंत्रों का उच्चारण कितना शुद्ध और भाव कितना पवित्र था । मंदिरों में आरती एक सामूहिक ध्यान की प्रक्रिया न रहकर एक शोरगुल और धक्का-मुक्की की औपचारिकता बन गई है, जहाँ लोगों का ध्यान भगवान की छवि से अधिक अपने मोबाइल के कैमरे पर केंद्रित होता है । तथाकथित मार्गदर्शक मंत्रों का उच्चारण स्पष्टता और शुद्धता से करने के बजाय उन्हें एक नाटकीय और संगीतमय ढंग से प्रस्तुत करने में अधिक रुचि रखते हैं, ताकि भीड़ को आकर्षित किया जा सके । उन्हें इस बात से कोई प्रयोजन नहीं कि अशुद्ध उच्चारण से उस मंत्र की दिव्य “रासायनिक” ऊर्जा नष्ट हो जाती है और वह निरर्थक ध्वनि-प्रदूषण मात्र बनकर रह जाता है ।

इस दिखावे के लालच ने पूजा की आत्मा को ही मार दिया है । जहाँ प्रक्रिया का मूल उद्देश्य साधक के अहंकार का विसर्जन करना था, वहीं आज यह प्रक्रिया कर्ता के अहंकार को पोषित करने का सबसे बड़ा साधन बन गई है । “मैंने इतना बड़ा अनुष्ठान करवाया,” “मेरे गुरुजी सबसे शक्तिशाली हैं,” “हमारे यहाँ का उत्सव सबसे भव्य होता है” – इस प्रकार के विचार ही इस बात का प्रमाण हैं कि प्रक्रिया का परिणाम उल्टा हो रहा है । जिस रसायन से अमृत बनना था, उसी रसायन के गलत प्रयोग से विष का निर्माण हो रहा है – अहंकार का विष, प्रतिस्पर्धा का विष, और आध्यात्मिक भौतिकवाद का विष । जब मार्गदर्शक ही पथभ्रष्ट हो, जब रक्षक ही भक्षक बन जाए, और जब प्रयोगशाला का वैज्ञानिक ही प्रयोग के नियमों को ताक पर रख दे, तो आम जनमानस, जो भोली श्रद्धा लेकर मार्गदर्शन के लिए आता है, उसका भ्रमित और शोषित होना अवश्यंभावी है । वह इस बाहरी चकाचौंध को ही आध्यात्मिकता मान बैठता है और जीवन भर उस मृगमरीचिका के पीछे भागता रहता है, जो वास्तव में कहीं है ही नहीं ।