सनातन पूजा पद्धति: एक वैज्ञानिक प्रक्रिया या एक खोखली औपचारिकता ?

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

सनातन संस्कृति में पूजा करने की पद्धतियाँ केवल औपचारिकता मात्र नहीं हैं ! यह एक ऐसा अकाट्य सत्य है जिसे आज की भौतिकवादी दृष्टि से देख पाना लगभग असंभव है । हमारे महान ऋषियों ने, जो केवल दार्शनिक नहीं अपितु इस ब्रह्मांड के रहस्यभेदी वैज्ञानिक थे, उपासना के प्रत्येक स्वरूप को एक गहन विज्ञान के रूप में स्थापित किया था । प्रत्येक पूजा पद्धति की अपनी एक अद्वितीय गहन रासायनिक वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है, व उस गहन रासायनिक वैज्ञानिक प्रक्रिया का हमारे जीवन, वातावरण तथा प्रकृति में सटीक गहन प्रभावशाली सकारात्मक परिणाम होता है ! यह कोई आस्था का विषय नहीं, अपितु ऊर्जा, ध्वनि, पदार्थ और चेतना के पारस्परिक प्रभाव का एक सुनिश्चित विज्ञान है, जिसके विधान आगम और तंत्र शास्त्रों में स्पष्ट रूप से वर्णित हैं ।

किन्तु आजकल जहाँ देखो वहीं इन गहन प्रभावशाली रासायनिक प्रक्रियाओं का “सक्षम एवं तथाकथित मार्गदर्शक विद्वान लोगों” के द्वारा केवल दिखावा करने के लालच में निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है ! आज के इन तथाकथित विद्वान पुजारियों द्वारा जब कर्मकांड का मंचन किया जाता है, तो उस प्रक्रिया की आत्मा ही लुप्त रहती है । न कोई आचमन द्वारा आंतरिक शुद्धि की प्रक्रिया, न अंग न्यास द्वारा शरीर को ऊर्जा धारण करने हेतु एक “दिव्य कवच” पहनाने का विधान, न आसन पूजन द्वारा उस भूमि के प्रति कृतज्ञता जहाँ बैठकर साधना करनी है, न दिग्बंध द्वारा उस स्थान को एक सुरक्षित ऊर्जा क्षेत्र बनाने की प्रक्रिया होती है । न तो मंत्रों का शुद्ध व पूर्ण उच्चारण होता है, न उच्छिष्टता, शुचिता, व पवित्रता की कोई सावधानी बरती जाती है । न तो उन्हें निर्माल्य से शेष पूजा सामग्रियों की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने का ज्ञान होता है, न किस पदार्थ को कब और किस मात्रा में उपयोग करना है, इसका कोई बोध होता है । न ही उन्हें किस प्रक्रिया को कब और क्यों करना है, इसका कोई ध्यान रहता है – बस सीधे-सीधे मुख्य पूजा, पाठ या आरती करने बैठ जाते हैं ! जिसके अत्यंत भीषण दुष्परिणाम संभावित होते हैं ।

यह समझना होगा कि सनातन की यह गहन पूजा, अनुष्ठान पद्धतियाँ तो सनातन के उस गहन “मुद्रा विज्ञान” की पद्धतियों का ही स्थूल भाग हैं, जहाँ ऊर्जा का प्रवाह अत्यंत सूक्ष्मता से नियंत्रित किया जाता है । मुद्रा विज्ञान में “तमाचे के रूप में उठा हुआ एक हाथ तनिक सी दिशा बदलते ही आशीर्वाद देने की मुद्रा में बदल जाता है और आशीर्वाद देने की मुद्रा में उठा हुआ हाथ तनिक सी दिशा बदलते ही तमाचा मारने की मुद्रा में बदल जाता है!” ठीक यही सिद्धांत इन पूजा-पद्धतियों पर भी लागू होता है । एक अशुद्ध मंत्र, एक गलत पदार्थ, या एक अनुचित प्रक्रिया उस अनुष्ठान की संपूर्ण ऊर्जा को सकारात्मक से नकारात्मक में बदल देने का सामर्थ्य रखती है । यह कोई खेल नहीं, यह ऊर्जा का विज्ञान है, जिसे संभालने के लिए अत्यंत योग्यता और शुचिता की आवश्यकता होती है ।

और जब ऐसे “तथाकथित सक्षम एवं तथाकथित मार्गदर्शक विद्वान, पुजारी लोगों” को इस विषय में कोई सुझाव या शिकायत कर दी जाए, तो प्रक्रिया-पद्धतियों में सैद्धांतिक सुधार करने के स्थान पर, वे अपनी अज्ञानता को ही परंपरा का नाम दे देते हैं । “हम वर्षों से ऐसे ही करते आए हैं“, “यहाँ का विधान ही यही है“, आदि का क्रोधपूर्ण बखान करते हुए इनके घमंड की खोपड़ी फटने की कगार पर आ जाती है ! और कभी-कभी तो स्थिति विवाद तक भी पहुँच जाती है ! यह अहंकार इस बात का प्रमाण है कि उनका उद्देश्य सत्य की स्थापना नहीं, अपितु अपने अज्ञान और अपने व्यवसाय को सुरक्षित रखना मात्र है ।

इस दुर्दशा का एक और गहरा शास्त्रीय कारण है- “अधिकार” के सिद्धांत का लोप । हमारे शास्त्रों में स्पष्ट है कि प्रत्येक कर्मकांड को करने का एक विशिष्ट “अधिकारी” होता है, जो दीक्षा, साधना, और पवित्रता के एक निश्चित स्तर को प्राप्त कर चुका हो । यह एक अत्यंत शक्तिशाली विज्ञान है, और इसे किसी भी ऐरे-गैरे, अनधिकृत व्यक्ति के हाथ में नहीं दिया जा सकता । आज के अधिकांश पुजारी इस “अधिकार” की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, जिस कारण उनके द्वारा की गई प्रक्रियाएँ निष्प्राण और कई बार तो हानिकारक भी सिद्ध होती हैं ।

किन्तु इस पतन के लिए केवल पुजारी वर्ग ही दोषी नहीं है, समाज और “यजमान” (पूजा करवाने वाले) का उत्तरदायित्व भी उतना ही है । आज का यजमान भी पूजा के पीछे के विज्ञान और उसकी शुचिता में रुचि नहीं रखता । वह कम से कम समय में, कम से कम खर्च में एक भव्य “इवेंट” चाहता है । उसे प्रक्रिया की गहनता से नहीं, प्रदर्शन के दिखावे से मतलब है । जब माँग ही दिखावे की हो, तो पूर्ति भी उसी के अनुरूप होगी । इसी माँग ने इन तथाकथित विद्वानों को पूजा-पद्धतियों में कटौती करने और उन्हें एक व्यावसायिक पैकेज का रूप देने के लिए प्रोत्साहित किया है ।

तो जब “सक्षम एवं तथाकथित मार्गदर्शक विद्वान लोगों” के द्वारा ही केवल दिखावा करने के लालच में सनातन की पूजा, अनुष्ठानों की गहन वैज्ञानिक, रासायनिक प्रक्रिया युक्त पद्धतियों का इस प्रकार निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है, तो “आम जनमानस” किससे मार्गदर्शन प्राप्त करे ? इसका सीधा सा मतलब तो यही हुआ कि सनातन की पूजा, अनुष्ठानों की गहन वैज्ञानिक, रासायनिक प्रक्रिया युक्त पद्धतियों के विधि-निषेध की मर्यादाओं से अनभिज्ञ व उनका हरण-क्षरण करने वाले ऐसे “तथाकथित सक्षम एवं तथाकथित मार्गदर्शक विद्वान लोग” वहाँ पर केवल धन, प्रतिष्ठा व ख्याति के लिए ही टिके हुए हैं ! उनका उद्देश्य यजमान का आध्यात्मिक कल्याण करना नहीं, अपितु उसे अपनी अज्ञानता और आडंबर के जाल में फँसाकर उसका आर्थिक व मानसिक शोषण करना है ।