अध्यात्म के रहस्यमयी पथ पर चलने वाले साधक के जीवन में सिद्धियां एक ऐसे मोहक पड़ाव के रूप में आती हैं, जो चमत्कारों, शक्तियों और अलौकिक क्षमताओं के अनगिनत द्वार खोलती प्रतीत होती हैं। ये सिद्धियां, जो कि गहन तप, योग और मंत्र साधना के स्वाभाविक उप-उत्पाद (by-product) हैं, साधक को प्रकृति के सूक्ष्म नियमों पर एक अस्थायी नियंत्रण प्रदान करती हैं। सामान्य मनुष्य के लिए जो असंभव है, वह एक सिद्ध योगी के लिए सहज खेल बन जाता है। हवा में उड़ना, अदृश्य हो जाना, किसी के मन की बात जान लेना, या एक वस्तु को दूसरे में रूपांतरित कर देना – ये सभी सिद्धियों के ही विभिन्न रूप हैं। इनकी चकाचौंध इतनी तीव्र होती है कि बड़े-बड़े तपस्वी भी इनके आकर्षण में फंसकर अपने परम लक्ष्य, जो कि आत्म-साक्षात्कार या मोक्ष है, से भटक जाते हैं।
परंतु, एक विवेकी और ज्ञानी साधक इस सत्य को भली-भांति जानता है कि ये सिद्धियां दोधारी तलवार के समान हैं। इनका सदुपयोग यदि कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, तो इनका दुरुपयोग अहंकार, वासना और अंततः पतन के गहरे गर्त में धकेल देता है। आपके द्वारा उल्लिखित सूत्र इस रहस्य पर से पर्दा उठाता है कि इन सिद्धियों का वास्तविक प्रयोजन और उनकी सीमा क्या है। इनका उपयोग केवल 3 विशिष्ट क्षेत्रों तक ही सीमित और मर्यादित है: चमत्कार प्रदर्शन द्वारा श्रद्धा का संचार, कर्मबंधनों में अस्थायी हस्तक्षेप, और केवल रक्षात्मक उपयोग।
पहला उपयोग है ‘चमत्कार दिखाना’। यहां चमत्कार का उद्देश्य अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर वाहवाही लूटना या अनुयायियों की भीड़ एकत्रित करना नहीं है। इसका एकमात्र शुद्ध उद्देश्य होता है – नास्तिक और संशयग्रस्त मनों में ईश्वर या आध्यात्मिक सत्ता के प्रति विश्वास और श्रद्धा का एक बीज बोना। जब कोई व्यक्ति विज्ञान और तर्क की सीमाओं से परे किसी घटना को अपनी आंखों से घटित होते देखता है, तो उसका बौद्धिक अहंकार टूटता है और वह एक उच्चतर शक्ति के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए विवश हो जाता है। एक संत द्वारा भस्म प्रकट करना, किसी असाध्य रोगी को केवल स्पर्श से ठीक कर देना या भविष्य की किसी घटना की सटीक भविष्यवाणी करना – ये सभी कृत्य उस परम चेतना की एक झलक मात्र हैं, ताकि मनुष्य अपनी क्षुद्र भौतिक दुनिया से ऊपर उठकर उस विराट सत्य की खोज में प्रवृत्त हो सके। यह एक आध्यात्मिक ‘शॉक थेरेपी’ की तरह है, जो सोई हुई चेतना को जगाने का कार्य करती है।
दूसरा क्षेत्र है ‘कर्मबंधनों में नैमित्तिक हस्तक्षेप’। यह एक अत्यंत सूक्ष्म और जटिल विषय है। प्रत्येक जीव अपने संचित और प्रारब्ध कर्मों की एक अदृश्य गठरी लेकर यात्रा कर रहा है। इन कर्मों के फल सुख-दुःख, रोग-शोक, सफलता-विफलता के रूप में जीवन में प्रकट होते हैं। सिद्धियां इन कर्म-फलों की पीड़ा से अस्थायी राहत प्रदान कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति के प्रारब्ध में किसी गंभीर बीमारी का भोग लिखा है, तो कोई सिद्ध पुरुष अपनी योग-शक्ति से उस बीमारी को कुछ समय के लिए शांत कर सकता है या उसकी तीव्रता को कम कर सकता है। यह उस व्यक्ति को एक ‘अवकाश’ या respite प्रदान करने जैसा है। इस अवकाश का उद्देश्य उसे भोग-विलास में पुनः लिप्त करना नहीं, बल्कि उसे इतना समय और मानसिक शांति प्रदान करना है कि वह अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए प्रयास कर सके, ईश्वर का भजन-कीर्तन कर सके या अपने कर्मों का प्रायश्चित कर सके। यह कर्म के खाते को बंद करना नहीं, बल्कि भुगतान की तिथि को आगे बढ़ाने जैसा है। यह एक आध्यात्मिक painkiller है, जो दर्द को दबा देता है, परंतु रोग के मूल कारण को समाप्त नहीं करता।
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण उपयोग है ‘रक्षात्मक प्रयोग’। आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले साधक को कई बार नकारात्मक शक्तियों, बुरी ऊर्जाओं और आसुरी तत्त्वों के आक्रमण का सामना करना पड़ता है। ये शक्तियां उसकी साधना में विघ्न डालने का प्रयास करती हैं। ऐसी स्थिति में, सिद्धियों का उपयोग एक अदृश्य कवच या ढाल के रूप में किया जाता है। यह आत्म-रक्षा के लिए है, आक्रमण के लिए नहीं। एक सिद्ध पुरुष अपनी शक्ति का उपयोग किसी को हानि पहुंचाए, किसी का अहित करने या किसी पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए कभी नहीं करेगा, क्योंकि ऐसा करते ही वह स्वयं कर्म के एक नए और अधिक जटिल बंधन में फंस जाएगा। उसका उद्देश्य केवल अपनी और अपने आश्रितों की उन अदृश्य शक्तियों से रक्षा करना है, जो धर्म के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती हैं। यह शक्ति का संयमित और सात्विक उपयोग है, जो ‘अहिंसा’ के परम सिद्धांत के भीतर ही सीमित रहता है।
परंतु, इन तीनों उपयोगों की एक अंतिम और अटल सीमा है, और वह यह है कि सिद्धियों से ‘कर्म या भाग्य’ को स्थायी रूप से नहीं बदला जा सकता। यह ब्रह्मांड का सबसे कठोर और मौलिक नियम है। कर्म का सिद्धांत प्रकृति का आधारभूत संतुलन चक्र है। प्रत्येक क्रिया की एक समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है – यह केवल भौतिकी का नियम नहीं, बल्कि अध्यात्म का भी सर्वोच्च विधान है। आपने जो कर्म-बीज बोए हैं, उनका फल आपको भोगना ही पड़ेगा। सिद्धियां उस फल के पकने की प्रक्रिया को कुछ समय के लिए धीमा कर सकती हैं, या उस फल की कड़वाहट पर शहद का एक लेप चढ़ा सकती हैं, परंतु वे उस फल को जड़ से नष्ट नहीं कर सकतीं।
आपका यह कहना कि “कुछ माह, वर्ष या जीवन के उपरांत फिर से धारावाहिक वहीं से प्रारंभ हो जाता है,” इस सत्य का सबसे सटीक वर्णन है। मान लीजिए, किसी व्यक्ति ने अपने पूर्व कर्मों के कारण दरिद्रता का प्रारब्ध बनाया है। कोई सिद्ध पुरुष तरस खाकर अपनी शक्ति से उसे क्षण भर में धनवान बना सकता है। वह व्यक्ति कुछ समय के लिए उस धन का सुख भोगेगा, परंतु चूंकि उसकी दरिद्रता का मूल कार्मिक कारण समाप्त नहीं हुआ है, इसलिए वह धन या तो नष्ट हो जाएगा, या चोरी हो जाएगा, या किसी बीमारी में लग जाएगा, और अंततः कुछ वर्षों बाद वह व्यक्ति स्वयं को उसी स्थान पर खड़ा पाएगा, जहां से उसने शुरुआत की थी। उसका karmic script अपरिवर्तित रहता है। सिद्धियों का प्रभाव केवल परदे पर चल रहे दृश्य को कुछ देर के लिए रोकने जैसा है; जैसे ही शक्ति का प्रभाव क्षीण होता है, फिल्म ठीक उसी फ्रेम से दोबारा शुरू हो जाती है। यह एक अस्थायी राहत है, स्थायी समाधान नहीं। यह कर्म की सुनामी के सामने रेत का एक अस्थायी बांध बनाने जैसा है, जो कुछ देर तो लहरों को रोक सकता है, परंतु अंततः उसे टूटना ही है। इसलिए, जो साधक सिद्धियों के जंजाल में फंसकर उन्हें ही अपनी यात्रा का अंत मान लेते हैं, वे वास्तव में एक सुनहरे पिंजरे में कैद हो जाते हैं, जो उन्हें मुक्ति के अनंत आकाश में उड़ने से रोक लेता है। सच्चा ज्ञान सिद्धियों को प्राप्त करने में नहीं, बल्कि उनकी सीमाओं को समझकर उनसे ऊपर उठने में है।