सनातन पूजा पद्धति: जब अमृत बनाने की प्रक्रिया विष उगलने लगे !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

सनातन संस्कृति की पूजा पद्धतियाँ केवल मनोकामना पूर्ति का साधन नहीं, अपितु मानव चेतना के रूपांतरण का एक गूढ़ विज्ञान हैं । हमारे ऋषियों ने इसे एक दिव्य “रसायन शास्त्र” के रूप में विकसित किया था, जिसमें मंत्र, यंत्र, भाव, और द्रव्य के सही संयोजन से साधक के भीतर शांति, विवेक, और आनंद रूपी अमृत का निर्माण होता है । इस प्रक्रिया की प्रत्येक विधि, प्रत्येक नियम और प्रत्येक मंत्र ऊर्जा के सूक्ष्म सिद्धांतों पर आधारित है, जिनका पालन करने पर एक निश्चित सकारात्मक परिणाम की प्राप्ति होती है । परंतु, जब इस दिव्य रसायन शास्त्र के प्रयोग में जान-बूझकर अशुद्धि का समावेश कर दिया जाए, जब इसका उद्देश्य आत्म-कल्याण न रहकर आत्म-प्रदर्शन बन जाए, तो यही प्रक्रिया अमृत के स्थान पर भयानक विष उत्पन्न करने लगती है । आज के युग में जब तथाकथित “विद्वान मार्गदर्शक” केवल दिखावे, धन और अनुयायियों की भीड़ जुटाने के लालच में इन प्रक्रियाओं के मूल स्वरूप को विकृत कर रहे हैं, तो इसके भीषण दुष्परिणाम समाज के आध्यात्मिक और नैतिक स्वास्थ्य को धीरे-धीरे खोखला कर रहे हैं । इसका सबसे पहला और सबसे घातक दुष्परिणाम है – श्रद्धा का क्षरण । जब एक आम व्यक्ति पूरी आस्था और विश्वास के साथ किसी अनुष्ठान में भाग लेता है, परंतु उसे कोई आंतरिक शांति या सकारात्मक परिवर्तन महसूस नहीं होता, बल्कि केवल आडंबर और व्यावसायीकरण का अनुभव होता है, तो उसका विश्वास धीरे-धीरे उस प्रक्रिया से ही नहीं, बल्कि संपूर्ण आध्यात्मिक मार्ग से उठने लगता है । वह या तो नास्तिकता की ओर अग्रसर हो जाता है या फिर एक स्थायी आध्यात्मिक संशय और cynicism का शिकार बन जाता है, जो किसी भी साधक के लिए सबसे बड़ी बाधा है ।

दूसरा भीषण दुष्परिणाम है – अहंकार का पोषण । पूजा और अनुष्ठान का मूल उद्देश्य कर्ता के “मैं” भाव का ईश्वर में विसर्जन करना है । परंतु जब वही प्रक्रिया प्रदर्शन का रूप ले लेती है, तो वह कर्ता और आयोजक दोनों के अहंकार को और अधिक फुलाने का काम करती है । “मैंने सबसे भव्य यज्ञ करवाया,” “मेरे गुरुजी के दरबार में लाखों लोग आते हैं,” “हमारे जैसा अनुष्ठान कोई नहीं कर सकता” – इस प्रकार की भावनाएँ आध्यात्मिक उन्नति के लक्षण नहीं, बल्कि आध्यात्मिक पतन के स्पष्ट संकेत हैं । यह अहंकार एक सूक्ष्म विष है जो व्यक्ति को ईश्वर से जोड़ने के बजाय उसे संसार और स्वार्थ के बंधन में और अधिक मजबूती से जकड़ लेता है । इसी अहंकार के कारण धार्मिक समूहों में आपसी प्रतिस्पर्धा, द्वेष और एक-दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जन्म लेती है, जो समाज को जोड़ने के बजाय तोड़ने का कार्य करती है ।

तीसरा और अत्यंत गंभीर दुष्परिणाम है – ऊर्जा का व्यतिक्रम । मंत्र और अनुष्ठान केवल शब्द या क्रियाएँ नहीं हैं, वे ऊर्जा के शक्तिशाली स्रोत हैं । जब मंत्रों का अशुद्ध उच्चारण किया जाता है या प्रक्रियाओं को गलत विधि से संपन्न किया जाता है, तो सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होने के स्थान पर एक नकारात्मक या असंतुलित ऊर्जा क्षेत्र का निर्माण हो सकता है । यह असंतुलित ऊर्जा उस अनुष्ठान में भाग लेने वाले लोगों के मन में अशांति, क्रोध, अवसाद और मानसिक अस्थिरता पैदा कर सकती है । कई बार लोग बड़े-बड़े अनुष्ठानों से लौटने के बाद अधिक शांत होने के बजाय अधिक उत्तेजित और भ्रमित महसूस करते हैं, जिसका मूल कारण यही ऊर्जा का व्यतिक्रम होता है । यह ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी शक्तिशाली औषधि की गलत मात्रा या गलत संयोजन रोगी को ठीक करने के बजाय उसकी स्थिति को और अधिक बिगाड़ सकता है ।

अंततः, इसका सबसे बड़ा सामाजिक दुष्परिणाम है – धर्म का व्यवसायीकरण । जब पूजा-पद्धतियाँ अपनी आध्यात्मिक आत्मा खो देती हैं, तो वे केवल धन कमाने का एक उपकरण बनकर रह जाती हैं । मोक्ष, शांति, और कृपा बिकाऊ वस्तु बन जाती हैं । इससे धर्म का वास्तविक मर्म, जो कि त्याग, सेवा, और निस्वार्थता है, पूरी तरह से नष्ट हो जाता है और आम जनमानस के मन में यह धारणा घर कर जाती है कि आध्यात्मिकता भी केवल अमीरों का विशेषाधिकार है । यह विकृति न केवल व्यक्ति को, बल्कि संपूर्ण समाज की नैतिक नींव को कमज़ोर कर देती है, जिससे एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जो बाहर से धार्मिक प्रतीत होता है, किन्तु भीतर से पूरी तरह खोखला और दिशाहीन होता है ।