अंधविश्वास एक असाध्य मानसिक मनोरोग है !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

अंधविश्वास एक असाध्य मानसिक मनोरोग है !

यह सूत्र केवल एक वाक्य नहीं, अपितु मानवीय चेतना के पतन की एक गहनतम मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक मीमांसा है । वस्तुतः, यह एक ऐसी मानसिक व्याधि है, जहां व्यक्ति की तर्कणा शक्ति, उसका विवेक और यथार्थ को स्वीकार करने की क्षमता पूर्ण रूप से अवरुद्ध हो जाती है । जिस प्रकार एक रुग्ण शरीर उत्तम से उत्तम औषधि को भी अस्वीकार कर देता है, ठीक उसी प्रकार इस कल्पनामय मनोरोग से ग्रस्त व्यक्ति का मन किसी भी सत्य, तर्क अथवा ज्ञान को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ पाता है । वह अपने ही द्वारा निर्मित एक ऐसे काल्पनिक जगत में निवास करने लगता है, जिसकी दीवारें भय, अज्ञान और अतार्किक मान्यताओं से बनी होती हैं । उस व्यक्ति के लिए किसी और की बात सुनना, समझना अथवा मानना इसलिए असंभव हो जाता है, क्योंकि उसकी अपनी सोचने और समझने की शक्ति, जिसे हमारे ऋषियों ने ‘विवेक’ की संज्ञा दी है, गहन सुषुप्ति की अवस्था में जाकर सामर्थ्यविहीन हो चुकी होती है । वह सत्य को नहीं, अपितु उसे ही स्वीकार करता है जो उसकी मान्यताओं को पोषित करता हो ।

इस भीषण मानसिक रोग की उत्पत्ति के मूल में झांकने पर इसके कुछ आधारभूत कारण स्पष्ट दिखाई देते हैं, जिनका हमारे शास्त्रों में भी विशद वर्णन मिलता है । इसका सबसे प्रमुख कारण है ‘भय’ । अज्ञात का भय, भविष्य का भय, मृत्यु का भय, अपनी प्रिय वस्तुओं को खो देने का भय । यह भय जब चेतना पर अधिकार कर लेता है, तो व्यक्ति पुरुषार्थ का मार्ग त्यागकर किसी चमत्कारिक शक्ति की शरण में जाना चाहता है जो उसे इस भय से मुक्ति का आश्वासन दे सके । यहीं से उन निरर्थक कर्मकांडों, टोटकों और मान्यताओं का जन्म होता है जिनका कोई तार्किक अथवा शास्त्रीय आधार नहीं होता । दूसरा बड़ा कारण है ‘अज्ञान’ । जब मनुष्य प्रकृति के कार्य-कारण सिद्धांत को नहीं समझता, जब वह यह नहीं जानता कि प्रत्येक घटना के पीछे एक निश्चित कारण विद्यमान है, तब वह अपनी अज्ञानता को भरने के लिए काल्पनिक देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों और अदृश्य शक्तियों की कहानियों का सृजन करता है । अज्ञानता ही वह अंधकार है जिसमें अंधविश्वास का विष-वृक्ष फलता-फूलता है ।

इनके अतिरिक्त, ‘प्रलोभन’ अथवा बिना पुरुषार्थ के सबकुछ पा लेने की तीव्र लालसा भी व्यक्ति को अंधविश्वास के गर्त में धकेलती है । जब कोई व्यक्ति कर्म करने से जी चुराता है, किंतु संसार के समस्त सुखों को भोगना चाहता है, तब वह ऐसे पाखंडियों के जाल में सहज ही फंस जाता है जो उसे किसी विशेष पूजा, बलि अथवा कर्मकांड के द्वारा समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति का झूठा विश्वास दिलाते हैं । धीरे-धीरे उसका अपनी क्षमताओं और कर्म पर से विश्वास उठता जाता है और वह पूर्ण रूप से इन बाहरी आडंबरों पर निर्भर हो जाता है । यह निर्भरता ही उसकी विवेक-शक्ति को दीमक की भांति भीतर से खोखला कर देती है । वह स्वयं के लिए सोचना बंद कर देता है और उसकी चेतना उन पाखंडियों की दास बनकर रह जाती है । यही वह अवस्था है, जहां उसकी सोचने-समझने की शक्ति सामर्थ्यविहीन हो चुकी होती है ।

यद्यपि इस मनोरोग की भीषणता को देखते हुए इसे ‘असाध्य’ कहना सर्वथा उचित है, क्योंकि इसका रोगी स्वयं को रोगी मानता ही नहीं, तथापि हमारे ऋषि-मुनियों ने इस अंधकार से बाहर निकलने का मार्ग भी प्रशस्त किया है । अंधविश्वास का उपचार किसी औषधि में नहीं, अपितु ‘तत्त्वज्ञान’ के प्रकाश में निहित है । ज्ञान ही वह एकमात्र साधन है जो अज्ञान रूपी अंधकार का समूल नाश कर सकता है । कठोपनिषद् का नचिकेता पात्र इसका अप्रतिम उदाहरण है । जब मृत्यु के देवता यम ने उसे आत्मज्ञान के अतिरिक्त संसार के समस्त भोग, लंबी आयु और अकूत संपत्ति का प्रलोभन दिया, तो बालक नचिकेता किसी भी भ्रम अथवा लालच में नहीं फंसा । उसने दृढ़तापूर्वक कहा कि यह सब नश्वर है और उसे केवल आत्मा के रहस्य का ज्ञान ही चाहिए । ज्ञान के प्रति यही अविचल निष्ठा और प्रलोभनों का तिरस्कार ही व्यक्ति को अंधविश्वास के दलदल में गिरने से बचाता है ।

इसी प्रकार, छांदोग्य उपनिषद् में सत्यकाम जाबाल की कथा अंधविश्वास पर सत्य की विजय का उद्घोष है । सत्यकाम जब गुरु हारिद्रुमत गौतम के पास ज्ञान प्राप्ति हेतु गए, तो गुरु ने उनसे उनका गोत्र पूछा । उस समय गोत्र के आधार पर ही शिक्षा दी जाती थी । सत्यकाम को अपने गोत्र का ज्ञान नहीं था । उन्होंने लौटकर अपनी माता से पूछा और माता के यह बताने पर कि उन्हें भी उनके गोत्र का ज्ञान नहीं, सत्यकाम ने बिना किसी भय व संकोच के यही सत्य जाकर अपने गुरु के समक्ष कह दिया । उनका यह आचरण उस समय की सामाजिक मान्यताओं के विपरीत था, किंतु उनके सत्य के प्रति अगाध आग्रह को देखकर गुरु गौतम ने कहा, “जो सत्य बोलने से विचलित नहीं हुआ, वही सच्चा ब्राह्मण है” और उन्होंने सत्यकाम को शिष्य रूप में स्वीकार कर लिया । यह दर्शाता है कि सत्य का अवलंबन करने वाला व्यक्ति सामाजिक अंधविश्वासों के बंधन को काटने का सामर्थ्य रखता है ।

अतः, इस मानसिक मनोरोग का समाधान बाहर नहीं, अपितु व्यक्ति के भीतर ही है । इसका उपचार है – निरंतर प्रश्न करना, अपनी बुद्धि व तर्क की कसौटी पर प्रत्येक मान्यता को कसना, ज्ञानियों का संग करना और शास्त्रों के वास्तविक मर्म को समझने का प्रयास करना । जब व्यक्ति का विश्वास अपने पुरुषार्थ और कर्मफल के सिद्धांत पर सुदृढ़ हो जाता है, तो उसे किसी बाहरी चमत्कार अथवा टोटके की आवश्यकता ही नहीं रहती । वह यह समझ जाता है कि सुख-दुःख, सफलता-असफलता उसके अपने ही कर्मों का प्रतिफल है । ज्ञान के उदय होते ही विवेक जाग्रत हो जाता है और जाग्रत विवेक के समक्ष कोई भी अंधविश्वास एक क्षण के लिए भी टिक नहीं सकता । वस्तुतः, जब तक चेतना पर अज्ञान का अंधकार छाया है, तब तक यह मनोरोग असाध्य ही प्रतीत होगा, किंतु ज्ञान के सूर्य की एक किरण ही इस अंधकार को समूल नष्ट कर देने के लिए पर्याप्त है ।