यदि धर्म और ईश्वर का दुरुपयोग एक ‘व्यवसाय’ है, तो इस व्यवसाय को चलाने और अपने प्रतिद्वंद्वियों को समाप्त करने के लिए एक ‘शस्त्र’ की भी आवश्यकता होती है । आपका यह कहना कि यह “सबसे सरल किन्तु महाविध्वंसकारी शस्त्र होता है,” इस त्रासदी की भयावहता को सटीक रूप से दर्शाता है । इतिहास के अन्य सभी शस्त्र – तलवार, तोप, या परमाणु बम – केवल शरीर को नष्ट करते हैं । परन्तु धर्म के नाम पर घृणा का शस्त्र मनुष्य की आत्मा को ही नष्ट कर देता है । यह पड़ोसी को पड़ोसी का दुश्मन बना देता है और दिलों में ऐसी दरारें पैदा कर देता है जिन्हें भरने में सदियाँ लग जाती हैं ।
यह शस्त्र ‘सरल’ क्यों है ?
भावनात्मक पहुँच: इसे इस्तेमाल करने के लिए किसी जटिल तकनीक की आवश्यकता नहीं है । यह सीधे मनुष्य की सबसे गहरी भावनाओं – उसकी आस्था, उसकी श्रद्धा, उसकी पहचान – से जुड़ता है । लोगों को तार्किक रूप से किसी राजनीतिक या आर्थिक विचारधारा के लिए लड़ने हेतु तैयार करना कठिन हो सकता है, परन्तु ‘ईश्वर’ और ‘धर्म’ के नाम पर उन्हें मरने-मारने के लिए तैयार करना बहुत सरल है ।
पूर्व-स्थापित नेटवर्क: महत्वाकांक्षी व्यक्ति को शून्य से शुरुआत नहीं करनी पड़ती । उसे मंदिर, मस्जिद, चर्च और अन्य धार्मिक स्थलों के रूप में एक बना-बनाया नेटवर्क और मंच मिलता है, जहाँ से वह बड़ी आसानी से अपने विचारों का विष फैला सकता है ।
नैतिकता का हनन: यह शस्त्र अपने उपयोगकर्ता को एक मनोवैज्ञानिक लाभ देता है । जब कोई व्यक्ति यह मान लेता है कि वह ईश्वर के लिए लड़ रहा है, तो उसके लिए कोई भी क्रूरता या हिंसा अधर्म नहीं रह जाती । हत्या, लूट, और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध भी ‘धर्म-रक्षा’ के नाम पर पुण्य का कार्य बन जाते हैं । वह स्वयं को एक योद्धा समझता है, अपराधी नहीं ।
यह शस्त्र ‘महाविध्वंसकारी’ क्यों है ?
तर्क की समाप्ति: जहाँ धर्म का जुनून सिर पर चढ़ जाता है, वहाँ तर्क और विवेक के लिए कोई स्थान नहीं बचता । संवाद और समझौते के सारे द्वार बंद हो जाते हैं । आप किसी ऐसे व्यक्ति से बहस नहीं कर सकते जो यह मानता हो कि उसे सीधे ईश्वर से निर्देश मिल रहे हैं । उसके लिए, आप या तो मित्र हैं या शत्रु, बीच का कोई रास्ता नहीं है ।
पीढ़ियों तक चलने वाली घृणा: राजनीतिक और भौगोलिक लड़ाइयाँ समय के साथ समाप्त हो सकती हैं, संधियाँ हो सकती हैं । परन्तु धर्म के नाम पर बोई गई नफरत पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती है । बच्चों को बचपन से ही दूसरे समुदाय के प्रति घृणा करना सिखाया जाता है । इतिहास को तोड़-मरोड़ कर एक ‘सतत शत्रुता’ की कहानी गढ़ी जाती है, जो कभी समाप्त नहीं होती ।
आंतरिक विनाश: यह शस्त्र केवल ‘शत्रु’ का ही विनाश नहीं करता, बल्कि स्वयं उस समाज को भी भीतर से खोखला कर देता है जो इसका इस्तेमाल करता है । जो समाज घृणा और कट्टरता को अपना मुख्य भाव बना लेता है, वह अपनी रचनात्मकता, अपनी प्रगति और अपनी आंतरिक शांति को खो देता है । उसके प्रतिभाशाली युवा या तो उस समाज से पलायन कर जाते हैं या उसी नफरत की आग में जलकर नष्ट हो जाते हैं । समाज का नैतिक ताना-बाना पूरी तरह से छिन्न-भिन्न हो जाता है ।
इस महाविध्वंसकारी शस्त्र का प्रयोग करने की प्रक्रिया चरणबद्ध तरीके से होती है । पहले, जैसा कि प्रथम लेख में वर्णित है, ‘हम’ और ‘वे’ का विभाजन किया जाता है । फिर, ‘वे’ का अमानवीकरण (dehumanization) किया जाता है – उन्हें राक्षस, दानव, देशद्रोही या कीड़े-मकोड़े के रूप में चित्रित किया जाता है । एक बार जब किसी समूह को अमानवीय मान लिया जाता है, तो उसके विरुद्ध किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित ठहराना आसान हो जाता है । इसके बाद अफवाहों और झूठी खबरों (propaganda) के माध्यम से ‘वैमनस्य की अग्नि’ को लगातार भड़काया जाता है । एक छोटी सी चिंगारी का इंतजार किया जाता है, और फिर उस चिंगारी से पूरे समाज में आग लगा दी जाती है ।
अंततः, जो लोग धर्म को एक शस्त्र के रूप में उपयोग करते हैं, वे वास्तव में सबसे बड़े नास्तिक होते हैं । क्योंकि यदि उन्हें ईश्वर पर सच्चा विश्वास होता, तो वे यह जानते कि जो ईश्वर प्रेम, करुणा और न्याय का स्रोत है, वह कभी भी अपने नाम पर घृणा और हिंसा को स्वीकार नहीं कर सकता । वे आस्था का उपयोग अपनी सत्ता की प्यास बुझाने के लिए करते हैं, और इस प्रक्रिया में वे उस आस्था की आत्मा की ही हत्या कर देते हैं । यह मानवता के विरुद्ध सबसे बड़ा अपराध है, क्योंकि यह उस चीज़ को ही ज़हर बना देता है जो मनुष्य का अंतिम सहारा और उसकी सबसे बड़ी आशा होनी चाहिए ।