“ईश्वर व धर्म” के नाम पर विभाजित करने का व्यवसाय !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

“ईश्वर और धर्म” के नाम पर समाज को विभाजित करना तथा उसे वैमनस्य की अग्नि में झोंककर अपने लक्ष्यों की पूर्ति का प्रयास करना, समस्त सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनैतिक सत्ता-संप्रभुता की महत्त्वाकांक्षा से ग्रस्त व्यक्तियों का निकृष्टतम ‘व्यवसाय’ और सरलतम किन्तु महाविध्वंसकारी ‘शस्त्र’ रहा है ! यह एक ऐसा सनातन षड्यंत्र है जो किसी एक युग, देश या सभ्यता तक सीमित नहीं, अपितु यह मानव की चेतना के पतन की वह दुखद गाथा है जो आदिकाल से आज तक निरंतर दोहराई जा रही है । जब भी मानवता प्रेम, करुणा और एकता के शिखर की ओर बढ़ने का प्रयास करती है, सत्ता के ये सौदागर धर्म का छद्म आवरण ओढ़कर उसे घृणा, भय और विभाजन की खाई में धकेल देते हैं । यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि यह महाविध्वंसकारी शस्त्र इतना अचूक और प्रभावी क्यों सिद्ध होता है, और हमारे प्राचीन ऋषियों ने इससे बचने का क्या सनातन समाधान प्रदान किया है ।

इस शस्त्र की प्रभावशीलता का मूल कारण यह है कि यह मनुष्य के अस्तित्व के 2 सबसे संवेदनशील मर्मस्थलों पर एक साथ प्रहार करता है – उसकी ‘आस्था’ और उसकी ‘अस्मिता’ । आस्था मनुष्य की वह आंतरिक शक्ति है जो उसे इस नश्वर जगत में भी किसी शाश्वत आधार का अनुभव कराती है । वहीं, अस्मिता या पहचान उसे एक सामाजिक समूह से जोड़कर सुरक्षा और सार्थकता का बोध कराती है । सत्ता के ये महत्त्वाकांक्षी ‘सामाजिक शत्रु’ इसी आस्था और अस्मिता का अपहरण कर लेते हैं । वे मनुष्य की ईश्वर के प्रति आस्था को अपने प्रति अंधभक्ति में परिवर्तित कर देते हैं और उसकी सामाजिक अस्मिता को दूसरी अस्मिताओं के प्रति घृणा में बदल देते हैं । इस मनोवैज्ञानिक शोषण को हमारे शास्त्रों में वर्णित त्रिगुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के सिद्धांत से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है । अधिकांश जनमानस स्वभाव से तमस-प्रधान होता है, जिसमें अज्ञान, मोह, अविवेक और जड़ता की अधिकता होती है । ऐसे लोग धर्म के गूढ़ दार्शनिक तत्त्वों को समझने में असमर्थ होते हैं और वे केवल उसके बाह्य प्रतीकों, नारों, कर्मकांडों और कथा-कहानियों से ही स्वयं को जोड़ पाते हैं । उनकी आस्था गहरी नहीं, अपितु भावुक होती है, जिसे सरलता से भड़काया जा सकता है । यही तमोगुणी प्रजा उन सत्ता-लोभियों के लिए सर्वोत्तम कच्चा माल होती है ।

वहीं दूसरी ओर, ये महत्त्वाकांक्षी सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनैतिक नेतृत्वकर्ता प्रबल रजोगुण से भरे होते हैं । रजस का स्वभाव ही महत्त्वाकांक्षा, क्रियाशीलता, लोभ, अशांति और सत्ता की तीव्र भूख है । उनका एकमात्र लक्ष्य येन केन प्रकारेण शक्ति और प्रभुत्व को प्राप्त करना होता है । वे प्रजा के ‘तमस’ अर्थात् अज्ञान का उपयोग अपने ‘रजस’ अर्थात् महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए करते हैं । वे धर्म को एक ऐसे उत्पाद के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो ‘हमारे’ लोगों को ‘दूसरे’ लोगों के काल्पनिक भय से बचाता है । वे घृणा का व्यवस्थित व्यवसाय करते हैं, और धर्म उसका सबसे पवित्र दिखने वाला विक्रय-चिह्न (Brand) होता है । श्रीमद्भगवद्गीता के 16वें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने जिन ‘आसुरी सम्पद्’ वाले मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन किया है, वे आज के इन सत्ता-लोभियों पर अक्षरशः खरे उतरते हैं । भगवान कहते हैं कि ऐसे आसुरी प्रवृत्ति के लोग दम्भ (पाखंड), दर्प (घमंड), अभिमान, क्रोध और कठोरता से युक्त होते हैं । वे अपनी दूषित बुद्धि से ऐसे दूषित कर्म करते हैं जो जगत का नाश करने वाले होते हैं । वे कहते हैं – “ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।” अर्थात् ‘मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही भोग करने वाला हूँ, मैं ही सर्वशक्तिमान और सुखी हूँ’ – यही उनका जीवन-दर्शन होता है । वे ईश्वर के नाम का उपयोग केवल अपने इसी आसुरी अहंकार की तुष्टि के लिए करते हैं ।

इस महाविध्वंसकारी शस्त्र की कार्यप्रणाली अत्यंत धूर्ततापूर्ण होती है । इसका प्रथम चरण होता है इतिहास और धर्मग्रंथों का विरूपण । वे इतिहास से केवल संघर्ष और उत्पीड़न की घटनाओं को चुनकर लाते हैं और सह-अस्तित्व और प्रेम के सहस्त्रों उदाहरणों को छिपा देते हैं । वे धर्मग्रंथों के सार्वभौमिक संदेशों की संकीर्ण और हिंसक व्याख्या करते हैं । उनका दूसरा चरण होता है ‘भेदबुद्धि’ का निर्माण‘हम’ बनाम ‘वे’ का एक स्पष्ट विभाजन । वे एक काल्पनिक शत्रु का निर्माण करते हैं और अपनी प्रजा को यह विश्वास दिलाते हैं कि उस शत्रु के कारण ही उनके समस्त कष्ट हैं । जब यह भेदबुद्धि गहरी हो जाती है, तो एक ही ईश्वर की संतानें एक-दूसरे को रक्तपिपासु शत्रु के रूप में देखने लगती हैं । इसका अंतिम और सबसे घातक चरण होता है ‘धर्म’ की परिभाषा को ही बदल देना । वे धर्म को नैतिकता और आध्यात्मिकता से हटाकर एक राजनैतिक और सैन्य पहचान में बदल देते हैं । तब धर्म व्यक्तिगत मोक्ष का मार्ग नहीं, अपितु सामूहिक सत्ता-संघर्ष का एक उपकरण बन जाता है ।

किन्तु जहाँ इतना गहन अंधकार है, वहीं हमारे ऋषियों ने प्रकाश का सनातन मार्ग भी दिखाया है । इस महाशस्त्र को केवल उसी सनातन ज्ञान से ही निष्क्रिय किया जा सकता है । इसका पहला और सबसे महत्वपूर्ण उपाय है समाज के प्रत्येक व्यक्ति में ‘विवेक’ का जागरण । विवेक वह आत्म-चेतना है जो दूध का दूध और पानी का पानी करने की क्षमता रखती है । विवेकशील व्यक्ति किसी नेता या धर्मगुरु के वस्त्रों या उसके ऊँचे सिंहासन को देखकर प्रभावित नहीं होता, अपितु उसके कर्मों और वचनों को धर्म की सनातन कसौटी पर तौलता है । वह प्रश्न करता है कि जो व्यक्ति घृणा और विभाजन का उपदेश दे रहा है, वह धर्म का प्रतिनिधि कैसे हो सकता है ? जिसका स्वयं का मन क्रोध और द्वेष से भरा है, वह दूसरों को शांति का मार्ग कैसे दिखा सकता है ? विवेक का यह अंकुश सत्ता के उन्मत्त हाथी को नियंत्रित कर सकता है ।

इसका दूसरा स्थायी समाधान है, समाज को धर्म के वास्तविक स्वरूप का बोध कराना । उसे यह समझाना होगा कि धर्म किसी ध्वज, नारे या संगठन का नाम नहीं है । ‘धारणात् धर्मः’ – जो मानवता के श्रेष्ठ मूल्यों को धारण करे और समाज को पतन से बचाए, वही धर्म है । मनुस्मृति में वर्णित धर्म के 10 सार्वभौमिक लक्षण – 1. धृति (धैर्य), 2. क्षमा (क्षमाशीलता), 3. दम (मन पर नियंत्रण), 4. अस्तेय (चोरी न करना), 5. शौच (आंतरिक और बाह्य पवित्रता), 6. इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), 7. धी (सद्बुद्धि), 8. विद्या (ज्ञान), 9. सत्य (सत्य का पालन), और 10. अक्रोध (क्रोध न करना) – ही धर्म की सच्ची पहचान हैं । जिस समाज का आदर्श यह परिभाषा बन जाएगी, उस समाज को कोई भी अधर्मी व्यक्ति धर्म के नाम पर मूर्ख नहीं बना सकेगा ।

अंततः, इस समस्या का मूल समाधान व्यक्तिगत स्तर पर ही निहित है । भगवान बुद्ध का संदेश ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात् ‘अपना दीपक स्वयं बनो’ ही अंतिम मार्ग है । जब तक मनुष्य अपने भीतर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित नहीं करेगा, तब तक वह बाहरी अँधेरों में भटकता ही रहेगा और कोई भी धूर्त उसे अपने पीछे घसीट सकता है । धर्म मूलतः एक नितांत व्यक्तिगत और आंतरिक यात्रा है । जब व्यक्ति अपनी आत्मा के प्रकाश में जीना सीख जाता है, जब वह ईश्वर को मंदिरों और मस्जिदों की दीवारों में नहीं, अपितु प्रत्येक जीव की चेतना में अनुभव करने लगता है, तब वह स्वतः ही इन समस्त विभाजनों से ऊपर उठ जाता है । ऐसा आत्म-ज्ञानी व्यक्ति किसी भी सत्ता-लोभी का अनुयायी नहीं बन सकता, वह स्वयं सत्य का अनुयायी बन जाता है । अतः, धर्म के नाम पर चल रहे इस निकृष्टतम व्यवसाय और महाविध्वंसकारी शस्त्र का निवारण किसी राजनैतिक संधि या कानून में नहीं, अपितु जन-जन में विवेक, सत्-धर्म के बोध और आत्म-ज्ञान के प्रकाश को फैलाने में ही निहित है ।