चमत्कार का भ्रम या आध्यात्म का सत्य ? वह पहचान जो आपको भ्रमित होने से बचाएगी ।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

जादू, चमत्कार” में तो छुपाने के लिए और “अध्यात्म” में आत्मिक अनुभूति, अध्यात्म विज्ञान से प्राप्त हुए व्यक्त किए जाने की सीमा से परे के ईश्वरीय अनुभवों के अतिरिक्त बाह्य रूप से प्रदर्शित करने, व्यक्त करने के लिए कुछ होता ही नहीं है, तो फिर कोई आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी जैसा दिखने वाला व्यक्ति चमत्कार दिखाना ही क्यों चाहता है ? और उससे भी अधिक गंभीर प्रश्न यह है कि आम जनमानस भी किसी आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी जैसे दिखने वाले व्यक्ति से चमत्कार देखना ही क्यों चाहता है ? इन 2 प्रश्नों के भीतर ही आज सनातन संस्कृति के पतन, समाज के मनोवैज्ञानिक क्षरण और एक गहरे ऐतिहासिक षड्यंत्र की संपूर्ण कथा छिपी हुई है, जिसे समझना आज के समय की सबसे बड़ी अनिवार्यता है ।

इसका सीधा सा अर्थ है कि या तो आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी जैसा दिखने वाला वह व्यक्ति वास्तव में कोई आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी नहीं है, वह केवल अपने “चमत्कार” को प्रदर्शित करके आम जनमानस को अपनी ओर आकर्षित करके परोक्ष रूप से आम जनमानस की आस्था, श्रद्धा व धन को अपने लाभ के निमित्त उपयोग करना चाहता है ! अथवा आम जनमानस भी किसी आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी जैसे दिखने वाले व्यक्ति से चमत्कार देखकर ही उसके आध्यात्मिक या धार्मिक होने का परीक्षण या पुष्टि करना चाहता है ? किन्तु यह परीक्षण की पद्धति ही स्वयं में एक घोर अज्ञान है । भारतीय दर्शन की ज्ञान-मीमांसा (“प्रमाण” शास्त्र) के अनुसार, प्रत्येक वस्तु को जानने का एक उचित प्रमाण होता है । आप स्वाद को देखकर और रूप को चखकर नहीं जान सकते । ठीक इसी प्रकार, अध्यात्म-ज्ञान, जो “अनुभवगम्य” और “शास्त्रगम्य” है, उसे “प्रत्यक्ष” प्रमाण अर्थात आँखों से देखे गए चमत्कार से सिद्ध करने का प्रयास करना एक वैचारिक मूढ़ता है । जब अध्यात्म में बाह्य रूप से दिखाने के लिए कुछ है ही नहीं, तो फिर परीक्षण या पुष्टि किस बात की ???

यह मानसिक बीमारी, जहाँ धार्मिक व्यक्ति से चमत्कार की अपेक्षा की जाती है, वह सनातन संस्कृति की मूल प्रकृति नहीं रही । प्राचीन काल से ही जादू, चमत्कार दिखाकर अपनी आजीविका चलाने वाले नटों, बाजीगरों व जादूगरों का एक अलग वर्ग था, जिसे समाज मनोरंजनकर्ता की दृष्टि से देखता था, गुरु की नहीं । किन्तु समृद्ध सनातन संस्कृति का क्षरण करके उसे ईसाइयत व अन्य विचारधाराओं से प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से, ईसाई धर्म को भारत में स्थापित व विस्तृत करने के लिए, धार्मिक व्यक्तियों द्वारा चमत्कार दिखाकर लोगों का तथाकथित भला करने की यह मानसिक विकृति ईसाई मिशनरियों के द्वारा भारत की सनातनी प्रजा के मध्य लाई गई ! जिसमें पूर्वनियोजित षड्यंत्रों के अंतर्गत ईसाई पादरी चमत्कारों के रूप में लोगों का भला करने का छद्म दिखावा आम जनमानस के समक्ष प्रदर्शित करके स्वयं को सक्षम संत के रूप में प्रदर्शित किया करते थे, और आज भी करते हैं !

यह सत्य है कि भारतीय योग-परंपरा में “सिद्धियों” का वर्णन है, किन्तु उन्हें सदैव मोक्ष-मार्ग की बाधा ही माना गया है, न कि योग्यता का प्रमाण । हमारे ऋषियों ने इन शक्तियों को छिपाने का निर्देश दिया, इसके विपरीत मिशनरियों ने इसे धर्म-परिवर्तन का एक सुनियोजित उपकरण बनाया । अंतर नीयत और उद्देश्य का था । किन्तु यह बाहरी “वायरस” हमारे समाज को तभी संक्रमित कर पाया जब हमारी आंतरिक आध्यात्मिक प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर पड़ चुकी थी । संभवतः कर्मकांडों का खोखलापन और आध्यात्मिक शिक्षा के अभाव ने समाज में एक ऐसा शून्य पैदा कर दिया था, जिसे भरने के लिए वह किसी भी त्वरित और आकर्षक समाधान की ओर भागने को तैयार था ।

इसके बाद से भारत का आम सनातन जनमानस भी स्वेच्छा से इस रोग से ग्रस्त हो गया, जिसके साथ ईसाई मिशनरियों के उन कुत्सित षड्यंत्रों की स्थापना हुई और सनातन संस्कृति की आत्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक, दैवीय, मानवीय, सामाजिक, व नैतिक अनुभवों और समाज का सही व सटीक मार्गदर्शन करने में सक्षम दिग्दर्शनों से समृद्ध मूल रीढ़, जो कि वास्तविक आध्यात्मिक व धार्मिक साधु, संन्यासी हैं, उन्हें उपेक्षित व सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार की गर्त में धकेलने के विभिन्न कुत्सित षड्यंत्र प्रचलित हो गए । यह एक “आध्यात्मिक बाज़ार” का निर्माण था, जहाँ चमत्कार के आकर्षक विज्ञापनों के सामने, ज्ञान और साधना की शांत दुकान फीकी पड़ गई ।

इसके बाद से भारत का आम सनातन जनमानस भी स्वेच्छा से इस रोग से ग्रस्त हो गया । लोगों के मन में यह बात घर कर गई कि जो व्यक्ति चमत्कार दिखा सकता है, वही सच्चा संत है । इस 1 विचार के साथ ही ईसाई मिशनरियों के उन कुत्सित षड्यंत्रों की स्थापना हुई और साथ ही सनातन संस्कृति की मूल रीढ़, जो कि वास्तविक आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी हैं, उन्हें उपेक्षित करने व सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार की गर्त में धकेलने के विभिन्न कुत्सित षड्यंत्र प्रचलित हो गए । एक सच्चे संन्यासी के पास दिखाने को तो कुछ था नहीं, उसके पास तो अनुभव करने और अनुभव कराने के लिए “ज्ञान” था, जिसमें आम जन की कोई रुचि नहीं थी ।

इस पूरी स्थिति को एक “आध्यात्मिक बाज़ार” के रूप में देखा जा सकता है । इस बाज़ार में सच्चा संन्यासी अपनी शांत, बिना विज्ञापन वाली दुकान पर बैठा है, जहाँ ग्राहक को स्वयं साधना और पुरुषार्थ का मूल्य चुकाकर ज्ञान रूपी वस्तु खरीदनी पड़ती है । वहीं दूसरी ओर, बहरूपिए बाबा और अन्य पंथ आकर्षक विज्ञापनों (चमत्कारों), विशेष छूटों (त्वरित समाधान) और मुफ्त उपहारों (आशीर्वाद) के साथ ग्राहक को लुभा रहे हैं । आज का आलसी, परिणाम-उन्मुख और मनोरंजन-प्रिय समाज स्वाभाविक रूप से इन्हीं आकर्षक विज्ञापनों की ओर खिंच रहा है । यह एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक हस्तांतरण भी है, जहाँ सनातन संस्कृति द्वारा प्रेरित “आंतरिक नियंत्रण” (मैं अपनी साधना से स्वयं को बदलूँगा) का स्थान, एक बाहरी नियंत्रण (कोई बाबा चमत्कार से मुझे बदल देगा) ने ले लिया है ।

तो इसका मतलब तो यही हुआ कि आम जनमानस स्वेच्छा से ही आध्यात्मिक या धार्मिक साधु, संन्यासी जैसे दिखने वाले, केवल अपने “चमत्कार” को प्रदर्शित करके आम जनमानस को अपनी ओर आकर्षित करने वाले और परोक्ष रूप से आम जनमानस की आस्था, श्रद्धा व धन को अपने लाभ के निमित्त उपयोग करने वाले बहरूपियों को ही आश्रय एवं विस्तार देना चाहता है । और इसके परिणामस्वरूप, वह सनातन संस्कृति की मूल रीढ़, उन वास्तविक आध्यात्मिक व धार्मिक साधु, संन्यासियों को, जिनके पास प्रदर्शन के लिए कोई चमत्कार नहीं, अपितु धारण करने के लिए ज्ञान और वैराग्य है, उपेक्षित व सामाजिक तिरस्कार, बहिष्कार की गर्त में धकेल देना चाहता है ! यह एक कठोर सत्य है, किन्तु समाज केवल शोषक को दोष देकर स्वयं को निर्दोष नहीं कह सकता, क्योंकि शोषक तभी तक सफल है जब तक शोषित होने के लिए एक भीड़ स्वेच्छा से तैयार खड़ी हो ।

किन्तु क्या इस रोग का कोई उपचार नहीं ? क्या समाज सदैव इसी गर्त में पड़ा रहेगा ? नहीं ! इसका समाधान भी स्वयं समाज के ही भीतर है । इसका प्रथम उपचार है- “विवेक का जागरण” । आम जनमानस को स्वयं से यह प्रश्न पूछना होगा कि उसे चमत्कार की आवश्यकता क्यों है ? क्या यह उसके आध्यात्मिक आलस्य और पुरुषार्थ से बचने की प्रवृत्ति का परिचायक नहीं है ? दूसरा उपचार है- “शास्त्र-चक्षु का विकास” । जब समाज अपने ही शास्त्रों, जैसे पतंजलि योगसूत्र, का अध्ययन करेगा, तो उसे स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि सिद्धियों का प्रदर्शन करने वाला योगी नहीं, भोगी होता है । और तीसरा व अंतिम उपचार है- “सच्चे संतों का समर्थन” । सच्चे संत की पहचान उसके वैभव और चमत्कारों से नहीं, अपितु उसकी सादगी, उसके ज्ञान, उसकी करुणा और उसके त्यागमय जीवन से होती है । जब समाज लक्षणों के स्थान पर गुणों को पूजना सीख जाएगा, तो ये सभी बहरूपिए स्वतः ही विलुप्त हो जाएँगे ।