यह एक अकाट्य और सनातन सत्य है कि सम्पूर्ण सृष्टि का नियंता और आधार वह एक ही परमेश्वर है, जो वस्तुतः निराकार, निर्गुण और अनाम है । उसी एक अद्वितीय सत्ता को विश्व की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं में अपनी-अपनी भाषा और भाव के अनुसार ईश्वर, अल्लाह, खुदा, गॉड, रब जैसे अनगिनत नामों से केवल सम्बोधित भर किया जाता है । यह नामकरण उसी प्रकार है, जैसे अनन्त महासागर के जल को कोई किसी पात्र में भरकर उसे गंगाजल कह दे, तो कोई उसी जल को आब-ए-जमजम । पात्र और नाम बदल जाने से जल का मूल तत्त्व नहीं बदल जाता । किन्तु, किसी के सम्बोधन करने मात्र से वह परमेश्वर किसी संस्कृति विशेष की एक पृथक् भौतिक सत्ता नहीं बन जाता । वह एक था, एक है, और सर्वदा एक ही रहेगा । तथापि, यहीं पर मानव चेतना का सबसे बड़ा विरोधाभास और सबसे गहन प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि सभी सभ्यताओं के ज्ञानीजन यह जानते और मानते हैं कि राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, मुहम्मद, ईसा मसीह जैसे समस्त महापुरुष उसी एक निराकार ईश्वर के अंश, अवतार अथवा प्रतिनिधि मात्र हैं, तो फिर इन्हीं महापुरुषों के नाम पर यह मानव समाज टुकड़ों में क्यों विभाजित है ? क्यों यह समाज एक-दूसरे के आराध्यों, उपासना-स्थलों और श्रद्धा-केंद्रों को क्षति पहुँचाने तथा अपमानित करने का अक्षम्य दुःसाहस करता है ? यह घृणित और पैशाचिक कृत्य करने वाले लोग आखिर कौन होते हैं ?
इस गहन प्रश्न का उत्तर कहीं बाहर नहीं, अपितु मानव-मन की ही गहराइयों में छिपा है और जिसका निदान आपने स्वयं ही किया है कि – निस्संदेह, ये लोग “धार्मिक और राजनैतिक सत्ता-संप्रभुता की महत्त्वाकांक्षा से ग्रस्त” तथा मानवता और नैतिकता के “सामाजिक शत्रु” होते हैं ! यह निदान अक्षरशः सत्य है । हमारे ऋषियों ने इसी मनोदशा को ‘अविद्या’ जनित ‘अहंकार’ की संज्ञा दी है, जो समस्त क्लेशों और संघर्षों का मूल है । जब तक जीव अविद्या अर्थात् आध्यात्मिक अज्ञान के अंधकार में रहता है, तब तक वह स्वयं को इस शरीर और मन तक ही सीमित मानता है । यह सीमित ‘मैं’ का भाव ही अहंकार है । यह अहंकार अपनी पुष्टि और अपने विस्तार के लिए सदैव लालायित रहता है । जब यह अहंकार धर्म के क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो वह अत्यंत सूक्ष्म और घातक रूप धारण कर लेता है । वह महापुरुषों के सार्वभौमिक संदेशों को अपनी संकीर्ण पहचान का उपकरण बना लेता है । तब ‘राम’ या ‘कृष्ण’ केवल एक चेतना के प्रतीक नहीं रहते, वे अहंकार की पुष्टि का माध्यम बन जाते हैं । ‘मेरा धर्म’, ‘मेरा पंथ’, ‘मेरा ईश्वर’ ही श्रेष्ठ है , यह भाव उसी अविद्या और अहंकार की उपज है ।
और इसी निर्बलता का लाभ उठाते हैं वे ‘सामाजिक शत्रु’ , जिनकी आपने पहचान की है । ये सत्ता के भूखे लोग धर्म को अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति का अचूक शस्त्र बना लेते हैं । वे जानते हैं कि मनुष्य की आस्था को यदि घृणा और भय से जोड़ दिया जाए, तो उसे सरलता से नियंत्रित किया जा सकता है । वे धर्म के वास्तविक मर्म को, उसकी आत्मा को निकालकर उसके मृत शरीर अर्थात् कर्मकांडों, प्रतीकों और नारों को ही धर्म कहकर प्रचारित करते हैं । वे महापुरुषों को, जिनका अवतरण मानवता को जोड़ने के लिए हुआ था, समाज को तोड़ने वाली दीवारों में बदल देते हैं । वे धर्म-ग्रंथों से प्रेम, करुणा और एकता के संदेशों को छिपाकर, संघर्ष और भेद दर्शाने वाले प्रसंगों की अपनी सुविधानुसार व्याख्या करते हैं । वे ‘हम’ और ‘वे’ का एक ऐसा भयावह चित्र प्रस्तुत करते हैं, जिससे साधारण मनुष्य भयभीत होकर उनकी शरण में आ जाता है और अपनी विवेक-बुद्धि को उनके चरणों में समर्पित कर देता है । यही वे लोग हैं जो ईश्वर के नाम पर अधर्म का व्यापार करते हैं । ये ईश्वर के सौदागर हैं, जो अपनी सत्ता की दुकान चलाने के लिए श्रद्धा का सौदा करते हैं ।
इस प्रक्रिया में वे महापुरुषों के जीवन और उनके मूल उपदेशों का सबसे बड़ा अपमान करते हैं । भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा – “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।” (हे पार्थ ! जो मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी प्रकार भजता हूँ, क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं) । यहाँ ‘सब प्रकार से मेरे ही मार्ग’ का उद्घोष उस एक ही गंतव्य की ओर संकेत है, भले ही मार्ग पृथक् क्यों न हों । किन्तु ये सामाजिक शत्रु इस उद्घोष को अनसुना कर देते हैं । वे ईसा मसीह के प्रेम और क्षमा के संदेश को भुलाकर क्रूसेड (धर्मयुद्ध) का आह्वान करते हैं, वे इस्लाम, जिसका अर्थ ही ‘शांति’ है, के नाम पर जिहाद की हिंसक व्याख्या करते हैं, और वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की वैदिक भावना को संकीर्ण राष्ट्रवाद या पंथवाद में संकुचित कर देते हैं । उनके द्वारा की गई उपासना-स्थलों की क्षति, वास्तव में ईश्वर के घर पर नहीं, अपितु मानवता की आत्मा पर किया गया प्रहार है ।
इस घोर अंधकार से बाहर निकलने का मार्ग भी हमारे ऋषियों ने ही दिखाया है, जो किसी बाह्य क्रांति से नहीं, अपितु अंतःकरण की शुद्धि से आरम्भ होता है । इसका समाधान है – ‘विवेक’ और ‘धर्मबोध’ ।
समाधान का प्रथम चरण है प्रत्येक व्यक्ति के भीतर ‘विवेक’ का जागरण । विवेक वह आत्म-ज्योति है जो सत्य और असत्य, नित्य और अनित्य, धर्म और अधर्म के मध्य भेद करने की क्षमता प्रदान करती है । जिस व्यक्ति का विवेक जाग्रत है, वह किसी के बहकावे में नहीं आ सकता । वह धर्म के नाम पर की जाने वाली राजनीति को तुरंत पहचान लेता है । वह यह समझता है कि जो व्यक्ति या समूह किसी दूसरे की आस्था को चोट पहुँचाने की बात करे, उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं हो सकता, क्योंकि सच्चा धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं । वह ग्रंथ के शब्दों के पीछे छिपे मर्म को पकड़ता है, और किसी सत्ता-लोभी की व्याख्या को नहीं ।
समाधान का दूसरा और स्थायी चरण है ‘धर्म’ के वास्तविक स्वरूप को समझना । धर्म कोई वेशभूषा या कर्मकांड नहीं है । ‘धारणात् धर्ममित्याहुः’ – जो सम्पूर्ण समाज और मानवता को धारण करे, वही धर्म है । ‘मनुस्मृति’ में वर्णित धर्म के 10 लक्षण – धृति (धैर्य), क्षमा, दम (मन का दमन), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (पवित्रता), इन्द्रिय-निग्रह, धी (बुद्धि), विद्या, सत्य और अक्रोध – ही धर्म की सार्वभौमिक और सनातन परिभाषा हैं । इन लक्षणों के आधार पर जब हम तथाकथित ‘धर्म-रक्षकों’ के कृत्यों को तोलते हैं, तो वे स्पष्ट रूप से अधर्मी सिद्ध होते हैं । जो क्रोध, घृणा, हिंसा और असत्य का प्रचार करे, वह धार्मिक कैसे हो सकता है, भले ही उसने कितना ही बड़ा चोला क्यों न पहन रखा हो ?
अंतिम और परम समाधान ‘आत्म-ज्ञान’ में निहित है । जब तक मनुष्य स्वयं को शरीर और सम्प्रदाय से जोड़कर देखेगा, भेद बना ही रहेगा । उपनिषदों का ज्ञान हमें इसी भेद से ऊपर उठाता है । “तत्त्वमसि” (वह ब्रह्म तू ही है) का महावाक्य यह बोध कराता है कि जिस परमात्मा को हम बाहर खोज रहे हैं, वह हमारे ही भीतर आत्मा के रूप में विद्यमान है । जब एक साधक इस सत्य का अनुभव कर लेता है, तो उसके लिए सम्पूर्ण सृष्टि उसी एक ब्रह्म का विस्तार हो जाती है । तब उसे मंदिर की मूर्ति, मस्जिद की अज़ान और चर्च की प्रार्थना में एक ही दिव्य संगीत सुनाई देता है । उसके लिए कोई पराया नहीं रह जाता । यही वह अवस्था है, जहाँ पहुँचकर सारे विवाद, सारे संघर्ष और सारे भेद स्वतः ही शांत हो जाते हैं ।
अतः, निष्कर्ष यही है कि ईश्वर के अनेक नाम होते हुए भी ईश्वर एक ही है । महापुरुषों के मार्ग भिन्न दिखते हुए भी उनका गंतव्य एक ही था । यह भेद और संघर्ष हमारी अविद्या और अहंकार की देन है, जिसे सत्ता के लोभी ‘सामाजिक शत्रु’ अपने लाभ के लिए उपयोग करते हैं । इस मायाजाल से निकलने का एकमात्र उपाय है – विवेक को जाग्रत कर, धर्म के वास्तविक मर्म को समझकर, आत्म-ज्ञान के प्रकाश में उस एक परम सत्य का साक्षात्कार करना, जहाँ ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद मिट जाता है और केवल ‘एक’ ही शेष रहता है ।