तंत्र, उपासना व विभिन्न आध्यात्मिक अनुष्ठानों के माध्यम से जब साधक अपनी चेतना को एकाग्र कर ऊर्जा का संचयन करता है, तब प्रकृति के कुछ रहस्य उसके समक्ष खुलने लगते हैं । इसी अवस्था का नाम सिद्धि है । ये सिद्धियाँ वस्तुतः आध्यात्मिक मार्ग पर यात्रा कर रहे साधक के लिए मार्ग में आने वाले मनमोहक पुष्पों के समान हैं, जो अपनी सुगंध और सौंदर्य से पथिक को अपनी ओर आकर्षित करने की पूर्ण क्षमता रखती हैं । किंतु, विवेकहीन पथिक यदि इन्हीं पुष्पों को एकत्र करने में रम जाए और उन्हें ही अपनी मंजिल मान बैठे, तो उसका अपनी वास्तविक मंजिल से भटक जाना भी उतना ही निश्चित है । इन सिद्धियों का उपयोग प्रायः चमत्कार दिखाकर समाज को अपने प्रति आकर्षित व प्रभावित करने, कभी-कभी स्वयं के अथवा दूसरों के लिए एक रक्षात्मक कवच निर्मित करने, अथवा दूसरों के कर्मबंधनों में नैमित्तिक हस्तक्षेप कर स्वयं को कर्ता समझने के दंभ की पुष्टि के लिए ही होता है ।
समस्या का मूल यह है कि ऐसी प्रत्येक सिद्धि साधक के “मैं” भाव को और अधिक पोषित एवं पुष्ट करती है, जबकि अध्यात्म का संपूर्ण अनुष्ठान ही “मैं” के विसर्जन हेतु है । सिद्धि साधक में एक सूक्ष्म अहंकार का सृजन करती है कि “मैं कुछ विशेष हूँ”, “मेरे पास ऐसी शक्ति है जो दूसरों के पास नहीं”, “मैं प्रकृति के नियमों को भी बदल सकता हूँ” । यह “मैं” का भाव ही वह सबसे बड़ी बाधा है जो आत्मा को परमात्मा में विलीन होने से रोकता है । जिस क्षण साधक स्वयं को कर्ता मान लेता है, उसी क्षण वह अपने लिए नए और अत्यंत सुदृढ़ कर्म-बंधन निर्मित कर लेता है । सिद्धियों का प्रदर्शन करना, कांच के सुंदर टुकड़ों के लिए किसी अमूल्य हीरे को दांव पर लगा देने जैसी ही एक बड़ी भूल है ।
इतिहास साक्षी है कि बड़े-बड़े तपस्वी भी सिद्धियों के इस भ्रमजाल में उलझकर अपने मूल लक्ष्य से विचलित हुए हैं । इसका सबसे उत्कृष्ट एवं ज्वलंत उदाहरण महर्षि विश्वामित्र का जीवन है । वे अपनी घोर तपस्या के बल पर ऐसी-ऐसी अद्भुत सिद्धियों के स्वामी बन गए थे जिनकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था । वे अपनी शक्ति से त्रिशंकु के लिए एक नवीन स्वर्ग की रचना तक करने में सक्षम थे । तथापि, इतना असीम सामर्थ्य होने के उपरांत भी उनके भीतर क्रोध और अहंकार का लेश मात्र शेष था । उनका यही अहंकार उन्हें ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के समक्ष बार-बार पराजित कराता रहा । उनकी सिद्धियाँ उनके अहंकार को पोषित करती रहीं और उनका अहंकार उनकी आध्यात्मिक यात्रा में सबसे बड़ा कंटक बना रहा । जब तक विश्वामित्र ने अपनी समस्त सिद्धियों के मोह और उनके स्वामित्व के अहंकार का पूर्णतः त्याग नहीं कर दिया, जब तक वे सहज अवस्था को प्राप्त नहीं हुए, तब तक उन्हें “ब्रह्मर्षि” पद की प्राप्ति नहीं हुई । उनका जीवन यह स्पष्ट संदेश देता है कि सिद्धियों का संचय आध्यात्मिक उन्नति का मापदंड कदापि नहीं हो सकता !
इसी प्रकार, महर्षि दुर्वासा का उदाहरण भी प्रासंगिक है । वे अपने तपोबल और सिद्धियों के लिए विख्यात थे, किंतु वे अपने क्रोध पर नियंत्रण नहीं रख पाते थे । इस कारण वे अपनी अद्भुत शक्तियों का उपयोग प्रायः दूसरों को श्राप देने में कर बैठते थे, जिससे वे निरंतर नए कर्म-बंधनों का सृजन करते रहे । यह घटनाक्रम दिखाता है कि बिना पूर्ण आत्म-नियंत्रण और करुणा के, सिद्धियाँ विनाश का कारण भी बन सकती हैं और साधक को मुक्ति के स्थान पर बंधन की ओर धकेल देती हैं ।
स्वयं महर्षि पतंजलि ने अपने “योगसूत्र” के विभूतिपाद में विभिन्न प्रकार की सिद्धियों का विस्तार से वर्णन किया है, परंतु अगले ही सूत्र में वे एक स्पष्ट चेतावनी भी देते हैं ! वे कहते हैं: “ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः” अर्थात्, ये सिद्धियाँ सांसारिक अवस्था में तो उपलब्धियाँ प्रतीत होती हैं, किंतु समाधि अर्थात् कैवल्य के मार्ग में ये बड़ी बाधाएँ हैं । जो सच्चा योगी या साधक है, वह इन सिद्धियों को एक उपलब्धि न मानकर एक विघ्न मानता है और इनसे पूर्ण वैराग्य का भाव रखता है । वह जानता है कि ये शक्तियाँ भी प्रकृति के ही अधीन हैं और माया के ही खेल हैं, ये आत्म-तत्व नहीं हैं ।
अतः, यह अकाट्य सत्य है कि इन सिद्धियों से किसी के आध्यात्मिक जीवन को वास्तविक “गति-सद्गति” कदापि नहीं मिल सकती है ! क्योंकि ऐसी सिद्धियों की सीमा केवल भौतिक जगत की परिधि तक ही सीमित है, और ये स्वयं एक प्रकार के सूक्ष्म बंधन हैं जो आत्मा को इसी भौतिक जगत से बांधकर रखते हैं । अध्यात्म तो आत्मा का परमात्मा में विलय होने तक का अहंकार-शून्य, निष्कंटक मार्ग है । यह मार्ग सिद्धियों के प्रदर्शन से नहीं, अपितु अहंकार के विसर्जन से प्रशस्त होता है । इस मार्ग पर चलने के लिए साधक को केवल 2 पाथेय की आवश्यकता होती है – पहला है “विवेक”, जो उसे नित्य और अनित्य का भेद बताता है, और दूसरा है “वैराग्य”, जो उसे अनित्य अर्थात् सिद्धियों जैसे प्रलोभनों के प्रति अनासक्त रखता है । इन दोनों के अभाव में और गुरु कृपा के बिना, सिद्धियों के मोह-पाश से बच पाना लगभग असंभव है । सच्चा साधक शक्तियों का स्वामी बनने की चेष्टा नहीं करता, अपितु वह तो स्वयं को शून्य में विलीन कर देने के लिए ही साधना करता है ।