आस्तिक और नास्तिक: एक ही शिखर के दो पथ, एक ही सत्य के दो नाम ।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

आस्तिक लोग जिस ईश्वर की उपासना मंदिरों में जप, पूजा, पाठ आदि द्वारा करते हैं ! नास्तिक लोग उसी ईश्वर की उपासना अपने प्रतिष्ठानों में अपने पुरुषार्थ द्वारा किया करते हैं !! यह केवल दो विरोधाभासी वाक्य नहीं, अपितु उपासना के उस सार्वभौमिक सत्य का उद्घाटन है जो मत-पंथों की संकीर्ण सीमाओं से परे है । यह सूत्र कर्म और श्रद्धा के उस गहरे संबंध को उजागर करता है, जिसे समझ लेने पर आस्तिकता और नास्तिकता के मध्य का समस्त द्वंद्व ही समाप्त हो जाता है ।

सामान्यतः हम यह मानते हैं कि उपासना का अधिकार केवल आस्तिकों को है । हम सोचते हैं कि जो व्यक्ति मंदिरों में जाकर प्रतिमा के समक्ष नतमस्तक होता है, जो शास्त्रों का पाठ करता है, और जो ईश्वर के नाम का जप करता है, केवल वही उपासक है । यह मार्ग सत्य है, किन्तु यह संपूर्ण सत्य नहीं है । यह सगुण उपासना का एक स्वरूप है, जहाँ भक्त प्रतीकों, अनुष्ठानों और मंदिरों के माध्यम से उस परम चेतना से जुड़ने का प्रयास करता है । यह एक पवित्र और सिद्ध मार्ग है, किन्तु यह उपासना का एकमात्र मार्ग नहीं है ।

अब उस व्यक्ति पर विचार करें जिसे समाज “नास्तिक” कहता है । वह मंदिरों में नहीं जाता, वह किसी प्रतिमा के आगे सिर नहीं झुकाता, और वह ईश्वर के अस्तित्व को शाब्दिक रूप से स्वीकार नहीं करता । किन्तु क्या वह सच में अनुपासक है ? या उसकी उपासना का स्वरूप भिन्न है ? जब एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में दिन-रात एक करके प्रकृति के किसी रहस्य को उजागर करने का प्रयास करता है, तो वह किसकी उपासना कर रहा होता है ? वह “सत्य” रूपी ईश्वर की उपासना कर रहा होता है । जब एक चिकित्सक निष्ठापूर्वक रोगी की पीड़ा दूर करने में लगा रहता है, तो वह “करुणा” रूपी ईश्वर की उपासना कर रहा होता है । जब एक कलाकार अपनी संपूर्ण चेतना को एकाग्र करके एक अद्भुत कलाकृति का सृजन करता है, तो वह “सौंदर्य” और “सृजन” रूपी ईश्वर की उपासना कर रहा होता है ।

उसका प्रतिष्ठान, चाहे वह प्रयोगशाला हो, चिकित्सालय हो, या कला दीर्घा हो, ही उसका मंदिर है । उसका पुरुषार्थ, उसका श्रम, उसका संकल्प ही उसकी प्रार्थना है । उसकी एकाग्रता ही उसका ध्यान है, और उसके कर्म से जो श्रेष्ठ फल उत्पन्न होता है, वही उसका नैवेद्य है । वह ईश्वर का नाम नहीं लेता, किन्तु वह ईश्वर के गुणों – सत्य, करुणा, सृजन, उत्कृष्टता – को अपने जीवन और कर्म में साकार कर रहा होता है । क्या यह उपासना नहीं है ? वस्तुतः यह उपासना का सर्वोच्च और जीवंत स्वरूप है ।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसी रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहते हैं- “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः” । अर्थात, “मनुष्य अपने स्वाभाविक कर्मों के द्वारा उस परमेश्वर की पूजा करके ही परम सिद्धि को प्राप्त करता है ।” यहाँ ईश्वर ने स्पष्ट कर दिया है कि तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी पूजा है । अपने कार्य को पूरी निष्ठा, कुशलता और समर्पण से करना ही ईश्वर की सच्ची अर्चना है । इस दृष्टिकोण से, एक नास्तिक जो अपने कर्म के प्रति पूर्णतः समर्पित है, वह उस आस्तिक से कहीं श्रेष्ठ उपासक हो सकता है जो केवल कर्मकांड तो करता है, किन्तु अपने दैनिक जीवन और कर्म में बेईमानी और आलस्य करता है ।

यह संपूर्ण सृष्टि, यह समाज, यह प्रकृति, यह सब कुछ उसी एक विराट पुरुष का ही तो प्रकट स्वरूप है । एक नास्तिक व्यक्ति भले ही किसी अदृश्य ईश्वर को न माने, किन्तु वह इस दृश्य जगत की तो सेवा करता है । अपने पुरुषार्थ से वह समाज को बेहतर बनाता है, मानवता के ज्ञान को आगे बढ़ाता है, और सृष्टि के नियमों को समझकर उनका सदुपयोग करता है । यह उस विराट पुरुष की ही तो पूजा है । वह अनजाने में ही ईश्वर के साकार रूप की उपासना कर रहा होता है ।

अतः हमें ईश्वर और पुरुषार्थ की अपनी परिभाषाओं को विस्तार देना होगा । ईश्वर केवल मंदिरों में कैद कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि वह एक सार्वभौमिक सिद्धांत है – सत्य का, सृजन का, चेतना का, उत्कृष्टता का सिद्धांत । और पुरुषार्थ केवल धन कमाने का साधन नहीं, बल्कि उस सिद्धांत से जुड़ने का, उसे अपने जीवन में चरितार्थ करने का आध्यात्मिक माध्यम है । जिस क्षण कोई व्यक्ति अपने कर्म को पूरी सच्चाई और समर्पण के साथ करने लगता है, उसी क्षण वह आस्तिक हो या नास्तिक, एक महान उपासक बन जाता है ।

इसलिए, आस्तिक और नास्तिक के बीच का भेद केवल उपासना की पद्धति का भेद है, उपासना की आत्मा का नहीं । एक का मार्ग श्रद्धा से कर्म की ओर जाता है, तो दूसरे का मार्ग कर्म से श्रद्धा की ओर पहुंच सकता है । एक ईश्वर को मानकर कर्म करता है, दूसरा कर्म करते-करते ही उस शक्ति का अनुभव कर लेता है जिसे आस्तिक ईश्वर कहते हैं । मंदिर और प्रतिष्ठान दोनों ही पूजा गृह हैं, बस पुजारी और पद्धतियाँ भिन्न हैं, किन्तु आराध्य वही एक परम तत्व है ।