मानव जीवन के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा जितनी प्राचीन है, उतनी ही गहन भी है। यह प्रश्न हमेशा से साधकों, दार्शनिकों और सामान्य जनों को विचलित करता रहा है कि जीवन में जो घटित होता है, वह केवल कर्मों का परिणाम है या भाग्य भी उसमें निर्णायक भूमिका निभाता है। इसी जिज्ञासा की खोज में, जब साधक गहन साधना करता है, तो उसे मार्ग में अनेक अनुभव प्राप्त होते हैं, जिन्हें परंपरागत भाषा में “सिद्धियां” कहा गया है। सिद्धियां आकर्षक होती हैं, चमत्कारी प्रतीत होती हैं, और साधक को यह भ्रम पैदा कर सकती हैं कि शायद इन्हीं के माध्यम से वह जीवन की जटिलताओं और कर्म-बंधन से मुक्त हो सकता है। लेकिन वास्तविकता कुछ और है।
सिद्धियों का उपयोग केवल कुछ सीमित प्रयोजनों तक ही मान्य है। प्राचीन ग्रंथों और ऋषि-मुनियों की शिक्षाओं के अनुसार, उनका प्रयोग चमत्कार दिखाने , कर्मबंधनों में नैमित्तिक हस्तक्षेप करने , या साधक की साधना की सुरक्षा हेतु रक्षात्मक उद्देश्य तक ही सीमित रहना चाहिए। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि “सुरक्षा” और “रक्षात्मक उपयोग” में अंतर है। सुरक्षा का अर्थ है किसी भी परिस्थिति से बचने की कोशिश करना, जबकि रक्षात्मक उपयोग का आशय है साधना के मार्ग में बाधक नकारात्मक शक्तियों से अपनी रक्षा करना।
अब प्रश्न उठता है कि क्या इन सिद्धियों के माध्यम से कोई व्यक्ति अपने भाग्य को बदल सकता है ! उत्तर है – नहीं। कर्म और भाग्य की सत्ता सिद्धियों से परे है। कर्म या भाग्य तो केवल आध्यात्मिक गुरु के मार्गदर्शन और प्रकृति के नियमानुसार भोगे गए अनुभवों से ही परिवर्तित हो सकते हैं। आध्यात्मिक गुरु ही वह सत्ता हैं, जो साधक को यह समझाते हैं कि कर्म का भोगना आवश्यक है। इसे टाला नहीं जा सकता। यदि कोई व्यक्ति किसी रोग, संकट या पीड़ा से ग्रस्त है और साधक अपनी सिद्धि से उसकी पीड़ा को अस्थायी रूप से कम कर देता है, तो यह केवल एक अंतराल है, न कि स्थायी समाधान।
यह अस्थायी अवकाश कभी-कभी कुछ दिनों का हो सकता है, कभी महीनों का, कभी वर्षों का, और कभी पूरे जीवन का भी। लेकिन जब यह अवकाश समाप्त होता है, तब जीवन का “धारावाहिक” वहीं से पुनः प्रारंभ हो जाता है, जहां से रुका था। यही कारण है कि ऋषि-मुनियों ने स्पष्ट कहा है – सिद्धियां साधना का लक्ष्य नहीं, केवल मार्ग की परीक्षाएं हैं। यदि कोई साधक सिद्धियों में उलझ गया, तो उसका आगे का मार्ग रुक जाता है।
कर्म और भाग्य की इस अटल सत्ता को समझना अत्यंत आवश्यक है। कर्म हमारे द्वारा किए गए हर कार्य का परिणाम है – चाहे वह विचार, वाणी या आचरण से उत्पन्न हुआ हो। भाग्य उन्हीं संचित कर्मों का प्रतिफल है, जो हमारे वर्तमान जीवन की परिस्थितियों को निर्धारित करता है। यह नियम इतना अटल है कि न कोई देवता इसे बदल सकता है, न कोई साधक। हां, गुरु का मार्गदर्शन और साधना की तीव्रता इन परिणामों की तीक्ष्णता को कम कर सकती है, उन्हें शिथिल बना सकती है। लेकिन पूरी तरह टालना संभव नहीं।
इस संदर्भ में एक उदाहरण बड़ा उपयुक्त है। कल्पना कीजिए कि किसी व्यक्ति को पूर्वजन्म के कर्मों के कारण गंभीर रोग हुआ है। साधक अपनी सिद्धि से उस रोग को कुछ समय के लिए रोक देता है। रोगी को राहत मिल जाती है। लेकिन जब तक उस कर्म का भोग शेष है, तब तक रोग किसी और रूप में लौटकर आएगा। यही कर्म का शाश्वत नियम है।
इसलिए साधक को यह समझना चाहिए कि सिद्धियां केवल साधना की राह में मिलने वाले पड़ाव हैं। उनका प्रयोग यदि केवल रक्षात्मक और नैमित्तिक उद्देश्यों तक सीमित रखा जाए, तो वे सहायक सिद्ध हो सकती हैं। लेकिन यदि उनका दुरुपयोग हुआ – चमत्कार दिखाने, धन या प्रतिष्ठा कमाने के लिए – तो वे साधक की आत्मिक प्रगति को रोक देती हैं और उसे पतन की ओर धकेल देती हैं।
आध्यात्मिक गुरु की भूमिका यहां सर्वोपरि है। गुरु साधक को यह सिखाते हैं कि सिद्धियों में उलझना नहीं है। वास्तविक साधना आत्मज्ञान, मोक्ष और परम शांति की प्राप्ति के लिए है। गुरु का मार्गदर्शन साधक को यह सामर्थ्य देता है कि वह अपने कर्म-बंधन को धैर्यपूर्वक भोग सके और धीरे-धीरे अपने भाग्य को परिवर्तित कर सके।
इस प्रथम विवेचना का निष्कर्ष यह है कि सिद्धियां आकर्षक अवश्य हैं, लेकिन वे अंतिम समाधान नहीं। वे केवल साधना की यात्रा में अस्थायी विश्रामस्थल हैं। कर्म और भाग्य का परिवर्तन केवल साधना, तप और गुरु के मार्गदर्शन से ही संभव है। सिद्धियां इस यात्रा को सरल बना सकती हैं, लेकिन वे इसका अंत नहीं।