धर्म क्या है? “वर्तमान परिस्थिति में जो तुम्हारा कर्तव्य है वही तुम्हारा धर्म है ।”
यह सूत्र सनातन दर्शन के मर्म को अपने भीतर समाहित किए हुए है, जो धर्म को किन्हीं अपरिवर्तनीय नियमों की जड़ सूची के रूप में नहीं, अपितु एक जीवंत और गतिशील सत्य के रूप में प्रकट करता है । धर्म देश, काल और परिस्थिति के सापेक्ष परिवर्तित होता है । जो एक परिस्थिति में धर्म है, वह दूसरी में अधर्म भी हो सकता है । अतः धर्म का वास्तविक स्वरूप व्यक्ति के अपने उत्तरदायित्वों और कर्तव्यों के निष्काम निर्वहन में ही निहित है । यह परिभाषा धर्म को पूजा-पद्धतियों और कर्मकांडों की संकीर्ण सीमाओं से मुक्त कर उसे व्यक्ति के प्रत्येक कर्म, प्रत्येक विचार और प्रत्येक निर्णय से जोड़ देती है । जब व्यक्ति अपनी तत्कालीन परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व को ही अपना धर्म मानकर उसका पालन करता है, तो उसका संपूर्ण जीवन ही एक यज्ञ बन जाता है ।
किंतु, इस सूत्र की गहनता अपने भीतर एक विकट प्रश्न भी छिपाए हुए है – कर्तव्य का निर्धारण कैसे हो ? यदि मनुष्य का विवेक अज्ञान, मोह, राग अथवा द्वेष के बादलों से आच्छादित हो, तो वह अपने कर्तव्य का यथार्थ स्वरूप कैसे पहचानेगा ? इतिहास साक्षी है कि संसार के अनेकानेक अनर्थ और अधर्म, कर्तव्य के नाम पर ही किए गए हैं । एक आततायी भी अपने कुकृत्य को अपनी परिस्थिति का कर्तव्य बताकर उचित ठहरा सकता है । महाभारत के पात्र कर्ण का जीवन इसका सबसे मार्मिक उदाहरण है । कर्ण ने अपने मित्र दुर्योधन के प्रति निष्ठा को ही अपना परम कर्तव्य माना और उस मित्रधर्म के निर्वहन हेतु उसने अपने विवेक को ताक पर रख दिया । उसने भरी सभा में एक स्त्री के अपमान को मौन रहकर देखा, पांडवों के विरुद्ध प्रत्येक षड्यंत्र में भागीदार बना और अंततः अधर्म के पक्ष में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ । उसका मित्रधर्म प्रशंसनीय था, किंतु वह धर्म की वृहत्तर कसौटी पर खरा नहीं उतर सका, क्योंकि उसका कर्तव्य विवेक-सम्मत नहीं था, वह धर्म के सार्वभौमिक सिद्धांतों के विरुद्ध था ।
अतः, यह समझना अनिवार्य है कि “कर्तव्य” का निर्धारण व्यक्तिगत इच्छा, रुचि अथवा भावना के आधार पर नहीं हो सकता । कर्तव्य की कसौटी तीन स्तंभों पर आधारित होनी चाहिए – विवेक, शास्त्र और सर्वभूतहित । विवेक मनुष्य की वह आंतरिक ज्योति है जो उसे सत्य और असत्य, उचित और अनुचित का बोध कराती है । जब कोई कर्तव्य इस आंतरिक विवेक की ध्वनि के विरुद्ध प्रतीत हो, तो व्यक्ति को रुककर विचार करना चाहिए । दूसरा स्तंभ है शास्त्र, जो हमारे ऋषियों और मनीषियों के सहस्रों वर्षों के चिंतन और अनुभव का सार है । शास्त्र हमें वह दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं कि किन परिस्थितियों में मनुष्य का क्या कर्तव्य होना चाहिए । यह शास्त्र ही हमें साधारण धर्म और विशेष धर्म का ज्ञान कराते हैं । सत्य बोलना, अहिंसा, चोरी न करना, पवित्रता रखना – यह साधारण धर्म हैं, जो सभी के लिए प्रत्येक परिस्थिति में पालनीय हैं । वहीं, एक सैनिक का युद्ध क्षेत्र में शत्रु का संहार करना उसका विशेष धर्म है, जो उस परिस्थिति में अहिंसा के साधारण धर्म पर वरीयता प्राप्त करता है ।
जब व्यक्ति के समक्ष 2 या 2 से अधिक कर्तव्य आकर खड़े हो जाएं और उनमें से किसी एक का चुनाव करना कठिन हो जाए, तो उस स्थिति को ‘धर्मसंकट’ की संज्ञा दी जाती है । महाभारत का संपूर्ण कथानक ऐसे ही धर्मसंकटों से भरा पड़ा है । कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में अर्जुन के समक्ष उपस्थित हुआ धर्मसंकट इसका सर्वोच्च उदाहरण है । एक ओर उसके स्वजनों और गुरुजनों के प्रति उसका कर्तव्य था, तो दूसरी ओर एक क्षत्रिय के रूप में धर्म की स्थापना हेतु युद्ध करने का उसका कर्तव्य था । इस भीषण धर्मसंकट के क्षण में भगवान श्रीकृष्ण ने उसे उपदेश देकर समझाया कि उसका तत्कालीन कर्तव्य मोह-ग्रस्त होकर युद्ध से विमुख होना नहीं, अपितु फल की चिंता किए बिना, समभाव से अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करना है । इसी प्रकार, भीष्म पितामह का जीवन भी एक निरंतर धर्मसंकट था । हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति उनकी प्रतिज्ञा और धर्म व न्याय के प्रति उनका कर्तव्य, इन दोनों के मध्य वे आजीवन संघर्ष करते रहे और अंततः उनकी प्रतिज्ञा धर्म पर भारी पड़ी, जिसका परिणाम संपूर्ण कुल का विनाश हुआ ।
ऐसे धर्मसंकटों के समाधान हेतु ही हमारे शास्त्रों ने “आपद्धर्म” की अवधारणा दी है । आपद्धर्म अर्थात् आपत्ति के समय का धर्म । जब साधारण नियमों का पालन करने से धर्म की बड़ी हानि हो रही हो अथवा जीवन पर संकट आ गया हो, तब विवेक का प्रयोग कर उन नियमों का उल्लंघन किया जा सकता है । ऋषि विश्वामित्र ने एक भीषण अकाल के समय अपने और अपने परिवार के प्राण बचाने हेतु एक श्वपच के घर से अखाद्य मांस चुराकर ग्रहण किया था, क्योंकि उस समय उनका सबसे बड़ा कर्तव्य अपने प्राणों की रक्षा करना था, ताकि वे भविष्य में अपने ज्ञान से समाज का मार्गदर्शन कर सकें । यहां उनका यह कृत्य चोरी और अभक्ष्य-भक्षण के साधारण नियमों का उल्लंघन करते हुए भी धर्म ही कहलाया, क्योंकि वह एक बड़ी हानि को रोकने के लिए किया गया था ।
अंततः, किसी भी कर्तव्य की अंतिम कसौटी ‘सर्वभूतहित’ अर्थात् संपूर्ण प्राणिमात्र का कल्याण है । यदि किसी कर्तव्य-पालन से व्यापक स्तर पर समाज का, राष्ट्र का अथवा मानवता का अहित होता हो, तो उसे धर्म नहीं माना जा सकता । वही कर्तव्य श्रेष्ठ है, वही आचरण धर्म है, जो अधिकाधिक लोगों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करे । ऋषि दधीचि द्वारा वृत्रासुर के संहार हेतु देवताओं को अपनी अस्थियों का दान देना इसी ‘सर्वभूतहित’ के सिद्धांत का चरम उत्कर्ष है । उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन के कर्तव्य से ऊपर उठकर लोक-कल्याण के महाकर्तव्य को अपना धर्म समझा ।
निष्कर्षतः, “वर्तमान परिस्थिति में जो तुम्हारा कर्तव्य है वही तुम्हारा धर्म है” यह एक गहन और प्रामाणिक सत्य है, किंतु यह अधूरा है । इस सूत्र को पूर्णता तब प्राप्त होती है जब हम यह समझते हैं कि वह कर्तव्य हमारी व्यक्तिगत सनक या स्वार्थ से उत्पन्न न हो, अपितु वह विवेक की कसौटी पर कसा गया हो, शास्त्र के सिद्धांतों द्वारा मार्गदर्शित हो और जिसका अंतिम लक्ष्य प्राणिमात्र का कल्याण हो । जब कर्तव्य इन तीनों अमृत तत्वों से सिंचित होता है, तभी वह यथार्थ में धर्म बनता है और उसका पालन करने वाला व्यक्ति लौकिक और पारलौकिक दोनों ही दृष्टियों से परम श्रेय को प्राप्त करता है ।