आध्यात्मिक सत्ता केवल आत्मिक उत्थान और आत्मिक तृप्ति का विषय है । यह सत्ता साधना की गहराइयों से उत्पन्न होती है और साधक को उसके वास्तविक स्वरूप से मिलाती है । जब साधक का चित्त निर्मल और संयमित होता है, तभी यह सत्ता प्रकट होती है । किंतु यदि वही सत्ता प्रदर्शन या भौतिक प्रयोग का साधन बन जाए, तो वह आत्मिक विनाश की स्वचालित सीढ़ी बन जाती है !
आध्यात्मिकता का उद्देश्य आत्मा को उसकी परम जड़ से जोड़ना है । यह यात्रा बाहरी उपलब्धियों की नहीं, बल्कि आंतरिक शांति, संतोष और तृप्ति की है । किंतु समस्या तब उत्पन्न होती है जब साधक साधना से प्राप्त शक्ति का उपयोग अहंकार, प्रसिद्धि और भौतिक प्रभाव के लिए करने लगता है । जैसे ही शक्ति का प्रदर्शन प्रारंभ होता है, साधक की दृष्टि साधना से हटकर बाहरी संसार की ओर मुड़ जाती है और वहीं से उसके पतन का मार्ग खुलता है ।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने इस सत्य को गहराई से समझा था । उन्होंने अपनी साधना से अपार शक्तियाँ प्राप्त कीं, किंतु कभी उनका प्रदर्शन नहीं किया । महर्षि याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया था, किंतु वे शक्ति के बजाय ज्ञान और त्याग पर ही स्थिर रहे । महर्षि दत्तात्रेय त्रैलोक्यविजयी सिद्धियाँ रखते थे, किंतु उनका जीवन तप, वैराग्य और लोकमंगल में व्यतीत हुआ । महर्षि अष्टावक्र ने केवल ज्ञान और आत्मिक सत्य को ही श्रेष्ठ माना और शक्ति को महत्वहीन ठहराया । इसी प्रकार महर्षि पतंजलि ने योगसूत्रों में कहा कि सिद्धियाँ साधना के मार्ग में बाधा बन सकती हैं यदि साधक उन पर मोहित हो जाए । इन सभी ऋषियों ने अपने जीवन से यह सिद्ध कर दिया कि शक्ति का प्रदर्शन आत्मिक उत्थान नहीं, बल्कि आत्मिक पतन की सीढ़ी है ।
समस्या यह है कि आज की दुनिया में आध्यात्मिकता भी एक प्रकार का बाज़ार बन गई है । अनेक लोग “शक्ति” और “चमत्कार” को ही आध्यात्मिकता का मापदंड मान बैठे हैं । साधकों को प्रसिद्धि की लालसा है और समाज भी उसी को पूज्य मानता है जो अपनी शक्ति का प्रदर्शन करता है । यह प्रवृत्ति आध्यात्मिक साधना की पवित्रता को नष्ट कर देती है । जब शक्ति को साधना से ऊपर स्थान दे दिया जाता है, तब आत्मा का वास्तविक उत्थान रुक जाता है और साधक धीरे-धीरे आत्मिक शून्यता की ओर बढ़ने लगता है ।
कारण यही है कि आत्मिक सत्ता के वास्तविक उद्देश्य को भुला दिया गया है । साधना का लक्ष्य आत्मा की तृप्ति और परमात्मा से मिलन है, किंतु आज के समय में साधक और समाज दोनों ही इसे भौतिक लाभ और शक्ति प्रदर्शन का माध्यम बना बैठे हैं । यही भटकाव आत्मिक विनाश का बीज है । समाधान केवल संयम और आत्मशुद्धि में है । साधक को यह स्मरण रखना चाहिए कि शक्ति साधना का लक्ष्य नहीं, केवल एक उपफल है । उसका उपयोग केवल आवश्यकता पड़ने पर लोककल्याण के लिए किया जा सकता है, वह भी पूर्ण निस्वार्थ भाव से और सीमित रूप में । वास्तविक साधक वही है जो शक्ति को छिपाकर रखता है और अपनी पूरी ऊर्जा साधना, तप और आत्मिक उत्थान में लगाता है । शक्ति का प्रदर्शन केवल बाहरी दुनिया को प्रभावित करता है, परंतु संयमित शक्ति भीतर की दुनिया को प्रकाशित करती है ।
भारतीय परंपरा का शुद्ध संदेश यही है कि आध्यात्मिक सत्ता का मार्ग त्याग और संयम है, प्रदर्शन और प्रयोग नहीं । ऋषियों ने हमें दिखाया कि आत्मा की तृप्ति तभी संभव है जब साधक शक्ति के प्रलोभन से बचकर साधना की गहराई में प्रवेश करे । शक्ति के आकर्षण से बचना ही साधना का सबसे बड़ा तप है ।
आधुनिक समय में यह शिक्षा और भी प्रासंगिक है । आज जब हर क्षेत्र में बाहरी दिखावा, प्रदर्शन और प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है, तब आध्यात्मिक साधकों के लिए यह और कठिन हो गया है कि वे शक्ति को छिपाकर साधना में स्थिर रहें । किंतु यही वास्तविक परीक्षा है । यदि साधक शक्ति को संयमित रखकर केवल आत्मिक उत्कर्ष पर ध्यान दे, तभी उसका उत्थान संभव है । अन्यथा वह भी उसी पतन की ओर चला जाएगा जिसकी चेतावनी ऋषियों ने दी थी ।
अतः यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिक सत्ता का वास्तविक स्वरूप केवल आत्मिक उत्थान और आत्मिक तृप्ति है । शक्ति का प्रदर्शन और भौतिक प्रयोग आत्मिक विनाश की स्वचालित सीढ़ी है । प्राचीन ऋषियों ने अपने जीवन से यह सत्य प्रमाणित किया है और हमें भी यही मार्ग अपनाना चाहिए । आध्यात्मिक सत्ता और शक्ति तभी सार्थक है जब वह साधना की गहराइयों में छिपी रहे और साधक को अहंकार, लोभ और प्रदर्शन से बचाकर आत्मा की तृप्ति और परमात्मा से मिलन की ओर ले जाए । यही वास्तविक साधना है, यही वास्तविक उत्थान है और यही आत्मा का अमर पथ भी है !