इस सृष्टि की सर्वोच्च “अदृश्य सत्ता” अर्थात् ‘ईश्वर’ एक ही है, और वह प्राणियों की भिन्न-भिन्न मानसिकताओं और कल्पनाओं के अनुसार ही पृथक् नामों, रूपों और स्वरूपों में पूजा जाता है। यह केवल एक दार्शनिक मान्यता नहीं, अपितु यह सृष्टि का परम सत्य है, जिसे हमारे ऋषियों ने ‘एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति’ कहकर आज से सहस्रों वर्ष पूर्व ही उद्घोषित कर दिया था। वह परमतत्त्व वस्तुतः अरूप, अनाम और अचिन्त्य है। वह किसी भी मानवीय परिभाषा या कल्पना की सीमाओं से परे है। किन्तु, मनुष्य का मन स्वभाव से ही सीमित है। वह असीम को अपनी सीमित बुद्धि और इंद्रियों से ग्रहण नहीं कर सकता। जिस प्रकार हम अनंत आकाश को अपनी आँखों से एक बार में नहीं देख सकते, और उसे देखने के लिए हमें किसी खिड़की या गवाक्ष का सहारा लेना पड़ता है, उसी प्रकार उस असीम, निराकार परब्रह्म का ध्यान करने के लिए मन को किसी-न-किसी साकार प्रतीक या ‘आलंबन’ की आवश्यकता पड़ती है।
यही साकार प्रतीक भिन्न-भिन्न संस्कृतियों और मानसिकताओं में भिन्न-भिन्न आराध्य देवों के रूप में प्रकट होते हैं। राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, बुद्ध, महावीर, अल्लाह, गॉड – ये सब उसी एक अनंत सत्य के महासागर तक पहुँचने के लिए बनाए गए भिन्न-भिन्न घाटों के समान हैं। प्रत्येक घाट का अपना स्वरूप, अपना नाम और अपनी महिमा है, किन्तु सभी घाट उसी एक महासागर से जुड़े हैं। किसी व्यक्ति का किस घाट पर आकर्षण होगा, यह उसके जन्म-जन्मांतर के संस्कारों, उसकी प्रकृति और उसकी मानसिक संरचना पर निर्भर करता है। किसी को राजा राम का मर्यादित स्वरूप आकर्षित करता है, तो किसी को कृष्ण का प्रेममय और लीलापूर्ण स्वरूप। किसी को शिव का वैराग्यपूर्ण स्वरूप भाता है, तो किसी को आदिशक्ति का मातृ-स्वरूप। यह विविधता कोई दोष नहीं, अपितु यह उस परमेश्वर की अनंत महिमा का ही प्रमाण है कि वह कितने अनंत रूपों में स्वयं को प्रकट कर सकता है। यह सृष्टि का सौंदर्य है।
किंतु, इसी सौंदर्य से अत्यंत विकृत और भयंकर संघर्ष का भी जन्म होता है। इस संघर्ष का मूल कारण वह अज्ञान है जो अहंकार को जन्म देता है। अज्ञानी व्यक्ति एक मौलिक भूल कर बैठता है – वह उस खिड़की को ही पूरा आकाश समझ लेता है। वह अपने आराध्य के साकार स्वरूप को, जो कि उस असीम तक पहुँचने का एक माध्यम मात्र था, उसी को संपूर्ण और अंतिम सत्य मान लेता है। वह यह भूल जाता है कि उसका ‘ईष्ट’ उस एक ही ईश्वर का एक विशिष्ट प्रकाश है, और वह यह मान बैठता है कि उसका ‘ईष्ट’ ही एकमात्र ईश्वर है। जैसे ही यह संकीर्णता जन्म लेती है, वैसे ही अहंकार उसे अपने पाश में बांध लेता है। तब उसका आराध्य उसकी भक्ति का विषय कम, और उसके अहंकार की पुष्टि का साधन अधिक बन जाता है। ‘मैं राम का भक्त हूँ’ या ‘मैं शिव का उपासक हूँ’, यह भाव जब तक विनम्र है, तब तक भक्ति है। किन्तु जब यह ‘केवल मेरा राम ही सत्य है’ या ‘केवल मेरा शिव ही सर्वोच्च है’ के अहंकार में बदल जाता है, तो वहीं से घृणा और विद्वेष का विष उत्पन्न होता है।
यह अहंकार-जनित अज्ञान ही दूसरे के आराध्य के प्रति अपमान और असहिष्णुता का कारण है। जो व्यक्ति किसी अन्य के ईष्ट के नाम, रूप या स्वरूप का अपमान करता है, वह वस्तुतः उस दूसरे के ईष्ट का नहीं, अपितु स्वयं अपने ही ईष्ट का सबसे बड़ा अपमान करता है। क्योंकि यदि ईश्वर एक ही है, तो दूसरे के आराध्य का अपमान करना उसी एक ईश्वर का अपमान करना हुआ। यह वैसी ही मूर्खता है जैसे कोई व्यक्ति अपने एक हाथ से अपने ही दूसरे हाथ पर प्रहार करे। जो व्यक्ति अपने आराध्य के स्वरूप को ही संपूर्ण सत्य मानता है, वह उस जौहरी के समान है जो केवल सोने की अंगूठी को ही सोना मानता है और हार या कंगन को सोना मानने से इनकार कर देता है। वह यह नहीं समझता कि नाम-रूप भिन्न होते हुए भी, इन सबका मूल तत्त्व ‘स्वर्ण’ एक ही है।
इस अज्ञान के अंधकार का निवारण केवल ‘तत्त्वज्ञान’ के प्रकाश से ही संभव है। तत्त्वज्ञानी पुरुष वह है जिसने नाम-रूप के आवरण को भेदकर उसके भीतर स्थित उस एक सनातन तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया है। ज्ञानी पुरुष के लिए भिन्न-भिन्न आराध्यों के स्वरूप परस्पर विरोधी नहीं, अपितु एक-दूसरे के पूरक होते हैं। वह जानता है कि प्रत्येक स्वरूप उसी एक निराकार की एक विशिष्ट लीला और अभिव्यक्ति है। वह पारखी जौहरी की भांति सभी आभूषणों में एक ही स्वर्ण-तत्त्व का दर्शन करता है। इसलिए, उसके मन में किसी के प्रति भी अनादर का भाव उत्पन्न होना असंभव है। वह प्रत्येक आराध्य के समक्ष नतमस्तक होता है, क्योंकि वह जानता है कि वह प्रत्येक विग्रह के माध्यम से उसी एक परमेश्वर को प्रणाम कर रहा है।
अतः, अपने आराध्य ईष्ट के प्रति अनन्य और एकनिष्ठ भाव से समर्पित रहना ‘भक्ति’ है। यह यात्रा का आरम्भ है और अत्यंत आवश्यक है। एक ही घाट पर निष्ठा रखे बिना महासागर की गहराई में उतरना संभव नहीं है। किंतु, जब भक्ति परिपक्व होती है, तो वह ‘ज्ञान’ में परिणत हो जाती है। तब भक्त यह अनुभव करने लगता है कि जिस कृष्ण को वह अपने हृदय-मंदिर में पूजता है, वही कृष्ण सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है, वही शिव में, वही देवी में और वही प्रत्येक जीव में विराजमान है। यही भक्ति और ज्ञान का समन्वय है। इसलिए, अपने ईष्ट में पूर्ण निष्ठा रखना भक्ति का लक्षण है, और संसार के प्रत्येक ईष्ट में अपने ही ईष्ट का दर्शन करना परिपक्व ज्ञान का लक्षण है। यही सनातन दृष्टि है, यही सनातन धर्म है, और यही समस्त धार्मिक संघर्षों का एकमात्र सनातन समाधान है।