समानता का छलावा: क्यों वास्तविक समानता कानून से नहीं, ‘समदर्शिता’ से आती है ?

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

‘समानता’ एक सुन्दर छलावा मात्र है, क्योंकि जब प्रकृति ने ही अपनी सृष्टि में प्राणियों को शारीरिक और बौद्धिक और चारित्रिक रूप से भिन्न बनाया है, तो कोई बाह्य ‘धर्म’ या ‘कानून’ उन्हें समान कैसे बना सकता है ? वस्तुतः, समाज में वास्तविक और स्थायी समानता लाने के लिए किसी विधि-विधान की नहीं, अपितु “नैतिक शिष्टता” की ही एकमात्र आवश्यकता है ! यह एक ऐसा अकाट्य सत्य है जिसे आधुनिक राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्थाएं समझने में पूर्णतः विफल रही हैं, और इसी विफलता के कारण आज विश्व में समानता के नाम पर सर्वाधिक संघर्ष और वैमनस्य व्याप्त है । समानता का नारा जितना मनमोहक है, उसकी प्राप्ति का मार्ग उतना ही भ्रामक सिद्ध हुआ है, क्योंकि उसकी नींव ही प्रकृति के सनातन नियम के विरुद्ध रखी गई है ।

भारतीय दर्शन के अनुसार, यह सम्पूर्ण चराचर जगत प्रकृति के 3 गुणों – सत्त्व, रजस और तमस – की लीला का ही प्रतिफल है । प्रत्येक जीव, चाहे वह मनुष्य हो या कोई अन्य प्राणी, इन्हीं 3 गुणों के भिन्न-भिन्न अनुपात से निर्मित है । किसी में ज्ञान और प्रकाश की प्रधानता है तो वह सत्त्वगुणी है, किसी में कर्म, गति और महत्त्वाकांक्षा की प्रबलता है तो वह रजोगुणी है, और किसी में जड़ता, अज्ञान और मोह का आधिक्य है तो वह तमोगुणी है । इन्हीं गुणों के तारतम्य से प्रत्येक प्राणी का एक विशिष्ट ‘स्वभाव’ और एक विशिष्ट ‘स्वधर्म’ निर्मित होता है । जब प्रकृति के विधान में ही इतनी गहन विविधता है, एक चींटी और एक हाथी के स्वधर्म में इतना अंतर है, एक ज्ञानी और एक योद्धा के स्वभाव में इतनी भिन्नता है, तो फिर सबको एक ही तराजू पर तौलने का हठ एक प्रकार की वैचारिक हिंसा नहीं तो और क्या है ? कृत्रिम समानता का प्रयास करना वैसा ही है जैसे किसी मछली को वृक्ष पर चढ़ने और किसी वानर को गहरे जल में तैरने के लिए विवश करना । यह समानता नहीं, क्रूरता है । यह न्याय नहीं, प्रकृति का अपमान है ।

तो प्रश्न उठता है कि समाज में जो हमें ऊँच-नीच, निर्बल-सबल, ज्ञानी-अज्ञानी का भेद दिखाई देता है, क्या वह उचित है ? यहीं पर गहन विश्लेषण की आवश्यकता है । समस्या प्रकृति द्वारा प्रदत्त विविधता में नहीं है, समस्या उस विविधता पर मनुष्य द्वारा आरोपित ‘भेदबुद्धि’ में है । भेदबुद्धि अर्थात् वह विकृत दृष्टि जो प्राकृतिक भिन्नताओं पर श्रेष्ठता और निम्नता का, पवित्रता और अपवित्रता का, अधिकार और वंचना का मूल्य-निर्णय अंकित कर देती है । यह भेदबुद्धि ‘अहंकार’ और ‘अविद्या’ की ही उपज है । अहंकार सदैव स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करके ही पोषित होता है, और इसके लिए वह शरीर के रंग, कुल, धन, पद या ज्ञान को अपना शस्त्र बना लेता है । इसी भेदबुद्धि से सामाजिक अन्याय, शोषण और उत्पीड़न का जन्म होता है । अतः, समस्या प्राणियों के भिन्न होने में नहीं, अपितु उन्हें भिन्न मानकर उनके साथ विषम व्यवहार करने में है ।

इसी विषम-दृष्टि के समाधान हेतु हमारे ऋषियों ने ‘समानता’ का बाहरी और कृत्रिम उपचार नहीं दिया, अपितु ‘समदर्शिता’ का आंतरिक और आध्यात्मिक बोध प्रदान किया । समानता और समदर्शिता में वही अंतर है जो मिट्टी के खिलौनों और मिट्टी के तत्त्व में है । समानता खिलौनों के आकार-प्रकार को बलपूर्वक एक जैसा बनाने का प्रयास है, जबकि समदर्शिता उन सभी भिन्न-भिन्न खिलौनों में एक ही मिट्टी को देखने की प्रज्ञा-दृष्टि है । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण इसी समदर्शिता को ज्ञानी पुरुष का लक्षण बताते हुए कहते हैं – “विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।।” अर्थात्, जो विद्या और विनय से युक्त ब्राह्मण में, गाय में, हाथी में, कुत्ते में और चाण्डाल में भी समदर्शी हैं, वस्तुतः वे ही पण्डित अर्थात् ज्ञानी हैं । इसका अर्थ यह नहीं है कि ज्ञानी पुरुष इन सभी के साथ एक ‘समान’ व्यवहार करेगा, अपितु इसका अर्थ यह है कि वह इन सभी के भीतर स्थित एक ही आत्म-तत्त्व को देखेगा । वह यह जानता है कि बाहरी नाम-रूप और गुण-कर्म के आवरण भिन्न होते हुए भी, इन सबके भीतर चेतना का वही एक सनातन स्फुलिंग विद्यमान है ।

“नैतिक शिष्टता” इसी ‘समदर्शिता’ नामक आंतरिक ज्ञान का व्यावहारिक और सामाजिक प्रकटीकरण है । जिस व्यक्ति की दृष्टि में समदर्शिता आ जाती है, उसका व्यवहार स्वतः ही नैतिक और शिष्ट हो जाता है । उसे किसी को सम्मान देने के लिए कानून के डंडे की आवश्यकता नहीं पड़ती । उसका सम्मान और उसकी करुणा उसके हृदय से सहज ही प्रवाहित होती है, क्योंकि वह जानता है कि दूसरे को अपमानित करना स्वयं अपने ही भीतर स्थित परमात्मा का अपमान करना है । नैतिक शिष्टता का अर्थ है – दूसरे व्यक्ति की भिन्नता का, उसके विशिष्ट स्वभाव का सम्मान करना । इसका अर्थ है कि एक ज्ञानी के ज्ञान का आदर हो, एक योद्धा के शौर्य का सम्मान हो, एक कृषक के श्रम का मूल्य हो, और एक निर्बल को सबल का संरक्षण मिले । यह वह व्यवस्था है जहाँ पद या गुण के आधार पर व्यवहार में अंतर तो हो सकता है, किन्तु किसी की गरिमा का हनन नहीं हो सकता ।

अतः, धर्म और कानून का वास्तविक कार्य एक कृत्रिम ‘समानता’ को थोपना नहीं, अपितु एक ऐसी न्यायपूर्ण व्यवस्था का निर्माण करना है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्राकृतिक योग्यता (स्वभाव) के अनुसार अपने कर्तव्य (स्वधर्म) का पालन करते हुए विकसित होने का अवसर मिले । कानून का उद्देश्य अवसर की समानता देना है, परिणाम की समानता को बलात् स्थापित करना नहीं । कानून का कार्य भेदबुद्धि पर आधारित सामाजिक अन्याय को मिटाना है, न कि प्रकृति-प्रदत्त विविधता को ही मिटा देना । किन्तु कोई भी कानून तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक कि समाज के कण-कण में ‘नैतिक शिष्टता’ का भाव न व्याप्त हो । बिना नैतिक शिष्टता के, समानता केवल संविधान के पृष्ठों पर लिखा एक मृत शब्द रह जाएगी ।

निष्कर्षतः, समानता का आधुनिक विचार एक सुन्दर किन्तु दिशाहीन छलावा है जो प्रकृति के सत्य को नकारता है । वास्तविक और स्थायी समाधान भारतीय दर्शन के उस गहन सूत्र में निहित है जो बाहरी समानता के स्थान पर आंतरिक समदर्शिता पर बल देता है । जब व्यक्ति और समाज समदर्शिता की दृष्टि को अपनाकर ‘नैतिक शिष्टता’ को अपने आचरण में उतार लेता है, तभी एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जो कृत्रिम रूप से समान नहीं, अपितु नैसर्गिक रूप से सामंजस्यपूर्ण होता है, जहाँ विविधता एक संघर्ष का कारण नहीं, अपितु उत्सव का विषय बन जाती है ।