सिद्धियां वस्तुतः प्रकृति के सूक्ष्म नियमों पर संयम द्वारा प्राप्त किया गया आधिपत्य हैं, जिनका उपयोग नैमित्तिक हस्तक्षेप कर चमत्कार दिखाने या केवल विषम परिस्थितियों में रक्षात्मक उपयोग के लिए ही होता है। किंतु इनसे कर्म या भाग्य का सनातन विधान नहीं बदला जा सकता। कर्म का क्षय तो या तो सद्गुरु की कृपा-नीति के अधीन उसे भोगकर होता है, अथवा प्रकृति के अटल नियम के अनुसार। सिद्धियों से कर्मबंधन की पीड़ा पर केवल कुछ काल के लिए अवकाश का एक आवरण मात्र पड़ता है; कुछ माह, वर्ष या 1 जीवन के उपरांत, कर्मों का वह धारावाहिक अपने पिछले अंक से ही पुनः प्रारंभ हो जाता है, जहां पर उसे बलपूर्वक रोका गया था। यह आध्यात्मिक जगत का एक ऐसा रहस्य है, जिसे न समझ पाने के कारण अनगिनत साधक अपनी योग-साधना के शिखर के निकट पहुंचकर भी पुनः अहंकार और माया के गर्त में गिर जाते हैं।
इसे समझने के लिए पहले कर्म के विधान को समझना होगा। कर्म केवल स्थूल क्रिया नहीं है, अपितु प्रत्येक संकल्प, विचार और भावना द्वारा चित्त पर अंकित किया गया एक अमिट ‘संस्कार’ है। यही संस्कार भविष्य में हमारे भाग्य और परिस्थितियों का निर्माण करते हैं। कर्मों के इस भंडार के 3 स्तर हैं – संचित (जन्म-जन्मांतर के कर्मों का अगाध संग्रह), प्रारब्ध (संचित कर्म का वह अंश जो इस जीवन में फल देने के लिए प्रस्तुत हुआ है), और क्रियमाण (वर्तमान में किए जा रहे कर्म)। सिद्धियां प्रकृति के ही अधीन हैं, अतः वे प्रकृति के स्थूल और सूक्ष्म नियमों में हेर-फेर तो कर सकती हैं, किंतु वे कर्म के मूल स्रोत, अर्थात् चित्त में पड़े ‘कर्म-बीज’ को स्पर्श करने में भी अक्षम हैं। एक सिद्ध पुरुष अपनी योग-शक्ति से प्रारब्ध के किसी फल को, जैसे किसी रोग या दरिद्रता को, कुछ समय के लिए स्थगित कर सकता है या उसका रूप बदल सकता है। यह वैसा ही है जैसे कोई शक्तिशाली व्यक्ति किसी नदी के प्रवाह को एक बांध बनाकर कुछ समय के लिए रोक दे। किंतु नदी का स्रोत तो पीछे विद्यमान ही है, और बांध के कमजोर पड़ते ही वह जल पुनः उसी वेग से प्रवाहित होने लगता है। सिद्धियां कर्म-फल रूपी नदी पर एक अस्थायी बांध मात्र हैं; वे कर्म-बीज रूपी उद्गम को सुखाने का सामर्थ्य नहीं रखतीं।
यही कारण है कि महान योगियों और तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने सिद्धियों को आध्यात्मिक मार्ग की सबसे बड़ी बाधा और प्रलोभन कहा है। पतंजलि योगसूत्र में सिद्धियों का वर्णन तो है, किंतु साथ ही यह चेतावनी भी है कि ये समाधि के मार्ग में ‘उपसर्ग’ अर्थात् विघ्न हैं। इसका कारण यह है कि सिद्धियां साधक के ‘अहंकार’ को पोषित करने का सबसे सुगम माध्यम हैं। जब एक साधक चमत्कार दिखाने लगता है, तो जन-साधारण उसे ईश्वरतुल्य मानने लगता है। यह प्रशंसा और कीर्ति का विष साधक के चित्त में ‘मैं कुछ हूं’ के उस अहंकार-बीज को पुनः पोषित करने लगता है, जिसका नाश करने के लिए ही उसने साधना आरंभ की थी। वह मोक्ष के परम लक्ष्य को भूलकर प्रकृति की शक्तियों से खेलने में ही रम जाता है। वह कारागार से मुक्त होने के स्थान पर, कारागार के भीतर ही एक शक्तिशाली और सुविधा-संपन्न कैदी बनकर रह जाता है। सिद्धियों का उपयोग नए कर्मबंधनों का भी सृजन करता है, क्योंकि प्रत्येक हस्तक्षेप प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ता है, जिसका परिणाम कर्ता को अवश्य ही भोगना पड़ता है।
तो फिर कर्मों के इस धारावाहिक का अंत कैसे हो ? यदि सिद्धियां भी कर्म-बीज का नाश नहीं कर सकतीं, तो फिर इसका स्थायी समाधान क्या है ! हमारे शास्त्रों का एकमत से उत्तर है – केवल ‘आत्मज्ञान’। कर्म का मूल कारण है ‘अविद्या’, अर्थात् अपने वास्तविक स्वरूप को न जानना और स्वयं को यह शरीर, मन और बुद्धि मान लेना। जब तक ‘मैं कर्ता हूं’ और ‘मैं भोक्ता हूं’ का यह अज्ञान रूपी भाव विद्यमान है, तब तक कर्म-बीज का निर्माण होता ही रहेगा। इस अज्ञान को नष्ट करने का सामर्थ्य किसी भी भौतिक या परा-भौतिक शक्ति (सिद्धि) में नहीं है, इसे केवल ज्ञान ही नष्ट कर सकता है, जैसे अंधकार को केवल प्रकाश ही मिटा सकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं – “ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।” अर्थात्, हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है। यहां ‘भस्म’ करने का अर्थ कर्म-बीजों को ‘दग्ध’ कर देना है। जिस प्रकार एक भुने हुए बीज को यदि भूमि में बो भी दिया जाए तो वह अंकुरित नहीं हो सकता, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष के संचित कर्म ज्ञान की अग्नि में दग्ध होकर फल देने की अपनी क्षमता खो देते हैं। ज्ञानी का प्रारब्ध कर्म तो शरीर रहने तक फल देता रहता है, किंतु वह उससे लिप्त नहीं होता क्योंकि उसका ‘मैं कर्ता हूं’ का भाव नष्ट हो चुका होता है।
इसी संदर्भ में एक सद्गुरु की वास्तविक भूमिका स्पष्ट होती है। एक अज्ञानी शिष्य गुरु से चमत्कार, सांसारिक समस्याओं के समाधान और सिद्धियों के प्रदर्शन की अपेक्षा रखता है। वह चाहता है कि गुरु अपनी शक्ति से उसके प्रारब्ध को काट दें। किंतु एक सच्चा आत्मज्ञानी गुरु जानता है कि ऐसा करना शिष्य को बैसाखी देना है, उसे अपने पैरों पर खड़ा करना नहीं। वह जानता है कि शिष्य का वास्तविक कल्याण कर्म-फल को टालने में नहीं, अपितु कर्म-बीज को ही भस्म कर देने में है। अतः, सद्गुरु की सबसे बड़ी कृपा कोई चमत्कार दिखाना नहीं, अपितु शिष्य को वह ‘आत्मज्ञान’ प्रदान करना है, उसे स्वयं के वास्तविक स्वरूप (साक्षी-चैतन्य) का बोध कराना है, जो उसके जन्म-जन्मांतर के संचित कर्म-संस्कारों को सदा के लिए भस्म कर दे और उसे जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर दे। सिद्धियां माया के साम्राज्य का सर्वोच्च पद हैं, किंतु हैं वे बंधन ही। ज्ञान उस साम्राज्य का त्याग कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाना है, और यही वास्तविक मुक्ति या मोक्ष है।