धार्मिक आक्रामकता: आध्यात्मिक शक्ति का चिह्न या आंतरिक अश्रद्धा का ?

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

किसी एक प्राणी द्वारा कल्पित ईश्वर के नाम, रूप और स्वरूप को किसी अन्य प्राणी पर बलात् थोपना, “नैतिक वैमनस्य और सामाजिक द्वेष” उत्पन्न करने से अधिक और कुछ नहीं है ! यह एक ऐसा कृत्य है जो धर्म के आवरण में किया जाने वाला शुद्धतम अधर्म है। जो व्यक्ति अपने आराध्य की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दूसरे के आराध्य को अपमानित करता है, वह वास्तव में अपने आराध्य की नहीं, अपितु अपने गहन आंतरिक खोखलेपन और अपनी अश्रद्धा की ही घोषणा कर रहा होता है। यह समझना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि इस प्रकार की असहिष्णुता और आक्रामकता का मूल स्रोत क्या है, और हमारे ऋषियों ने इसके निवारण का क्या सनातन मार्ग दिखाया है।

जो व्यक्ति अपने मत या अपने ईश्वर को दूसरों पर थोपने का प्रयास करता है, उसकी यह चेष्टा उसकी आध्यात्मिक शक्ति से नहीं, अपितु उसकी गहन आंतरिक असुरक्षा और हीनता से जन्म लेती है। जिसका विश्वास केवल सुनी-सुनाई बातों, ग्रंथों के शाब्दिक ज्ञान या सामाजिक परंपरा पर आधारित होता है, वह भीतर से सदैव भयभीत रहता है। उसे स्वयं अपने मार्ग की सत्यता की कोई प्रत्यक्ष ‘अनुभूति’ नहीं हुई होती। उसका विश्वास एक ऐसे कच्चे घड़े के समान है जो बाहर से तो सुंदर दिखता है, किंतु भीतर से खोखला है और उसे सदैव दूसरे घड़ों के टकराने से टूट जाने का भय लगा रहता है। जब वह किसी दूसरे व्यक्ति को किसी अन्य नाम-रूप की उपासना करते हुए देखता है, तो उसे उस दूसरे व्यक्ति के विश्वास में अपने विश्वास के लिए एक चुनौती दिखाई देती है। दूसरे की निष्ठा उसके अपने विश्वास की नींव को हिला देती है।

इसी आंतरिक भय और अश्रद्धा से उत्पन्न हुए शून्य को भरने के लिए उसका ‘अहंकार’ एक रक्षा-कवच का निर्माण करता है। वह अपने मत को एक दुर्ग बनाकर उसमें छिप जाता है और उस दुर्ग की दीवारों को ऊंचा करने के लिए दूसरे के मतों पर आक्रमण करने लगता है। दूसरों को अपने मत में परिवर्तित करना उसके लिए अपने अहंकार की तुष्टि का एक साधन बन जाता है। प्रत्येक धर्मांतरित व्यक्ति एक ऐसा दर्पण होता है जिसमें उसे अपने दुर्बल विश्वास का एक शक्तिशाली प्रतिबिंब दिखाई देता है, भले ही वह प्रतिबिंब क्षणिक और मिथ्या ही क्यों न हो। वह जितना अधिक शोर मचाता है, जितना अधिक दूसरों को ‘काफिर’ या ‘पापी’ सिद्ध करने का प्रयास करता है, उतना ही वह अपने भीतर की अश्रद्धा और अपने अज्ञान के अंधकार को छिपाने का प्रयास कर रहा होता है। वस्तुतः, दूसरों पर अपने ईश्वर को थोपना एक हिंसक कृत्य है जो ‘अहिंसा’ (मानसिक और वैचारिक हिंसा), ‘सत्य’ (अपने कल्पित रूप को ही पूर्ण सत्य बताना) और ‘अस्तेय’ (दूसरे की आध्यात्मिक स्वतंत्रता का हरण करना) जैसे धर्म के मूल सिद्धांतों का ही हनन करता है।

इसके ठीक विपरीत, वह साधक या ज्ञानी है जिसे अपने ईष्ट और अपने मार्ग पर चलकर सत्य की एक झलक, एक ‘अनुभूति’ प्राप्त हो चुकी है। उसका विश्वास अब केवल शब्दों या सिद्धांतों पर नहीं, अपितु स्वयं के अनुभव पर आधारित है। वह उस व्यक्ति के समान है जिसने स्वयं शक्कर का स्वाद चख लिया हो; अब उसे किसी दूसरे से यह पूछने की आवश्यकता नहीं है कि शक्कर मीठी होती है या नहीं। उसका यह अनुभवजन्य ज्ञान उसे एक गहन आत्मविश्वास और आंतरिक सुरक्षा प्रदान करता है। उसका विश्वास अब एक कच्चे घड़े के समान नहीं, अपितु एक ठोस स्वर्ण-पिंड के समान है, जिसे किसी दूसरे धातु के टकराने का कोई भय नहीं होता।

ऐसा आत्मविश्वासी और अनुभवी साधक जब किसी दूसरे को किसी अन्य मार्ग पर चलते हुए देखता है, तो उसे उसमें कोई चुनौती या भय नहीं दिखाई देता। वह जानता है कि जिस प्रकार सभी नदियां भिन्न-भिन्न मार्गों से होकर अंततः एक ही सागर में विलीन होती हैं, उसी प्रकार सभी निष्ठापूर्ण उपासना-पद्धतियां अंततः उसी एक परमसत्य की ओर ले जाती हैं। वह यह जानता है कि ईश्वर इतना संकीर्ण नहीं हो सकता कि वह केवल एक ही मार्ग से की गई प्रार्थना को सुनेगा। इसलिए, वह दूसरे के मार्ग का केवल ‘सहन’ नहीं करता, अपितु उसका हृदय से ‘सम्मान’ करता है। उसके लिए दूसरे के आराध्य का सम्मान करना एक राजनीतिक शिष्टाचार नहीं, अपितु एक गहन आध्यात्मिक सत्य की स्वीकृति है। वह यह जानता है कि दूसरे के आराध्य में भी उसी के आराध्य का तत्त्व विद्यमान है।

अतः, आपके द्वारा दिया गया सूत्र ही अंतिम सत्य है। अपने आराध्य ईष्ट के प्रति एकनिष्ठ भाव से उपासना करना ‘श्रद्धा’ है। श्रद्धा के बिना आध्यात्मिक मार्ग पर एक पग भी चलना असंभव है। किंतु जब यह श्रद्धा ‘अनुभूति’ से सिंचित होकर परिपक्व होती है, तो वह ‘आत्मविश्वास’ में परिणत हो जाती है। और यही आत्मविश्वास व्यक्ति को उदार, सहिष्णु और सम्मानपूर्ण बनाता है। जिस व्यक्ति की श्रद्धा में आत्मविश्वास का बल नहीं है, उसी की श्रद्धा कट्टरता और असहिष्णुता को जन्म देती है। इसलिए, यात्रा स्वयं के ईष्ट के प्रति श्रद्धा से आरंभ होती है, और उसका चरमोत्कर्ष उस अभय आत्मविश्वास में होता है जहां व्यक्ति समस्त ईश्वरीय रूपों में अपने ही ईष्ट की झांकी पाता है और प्रत्येक उपासक में अपना ही सहयात्री देखता है।