‘व्यावहारिक यथार्थता’ ही सत्य तक पहुँचने का एकमात्र मार्ग है ।

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

मेरे मत, विचार व दृष्टिकोण किसी भी “अपरिपक्व विद्वानों व उनकी सोच को चुनौती” देने व विचलित करने के लिए पर्याप्त होते हैं ! यह कोई अहंकारपूर्ण उद्घोष नहीं, अपितु ज्ञान के उस स्वरूप का यथार्थ है, जो आज के बौद्धिक जगत से लगभग लुप्त हो चुका है । आज का तथाकथित ज्ञान सूचनाओं का संग्रह मात्र बनकर रह गया है, जहाँ विद्वता का मापदंड यह है कि कौन कितने ग्रंथों को उद्धृत कर सकता है या कौन कितने जटिल वाद-विवाद में उलझ सकता है । किन्तु यह विद्वता सत्य से मीलों दूर है, क्योंकि सत्य सूचनाओं में नहीं, अनुभव में निवास करता है ।

मेरे विचार उन लोगों को अवश्य ही विचलित करते हैं जो मान्यताओं के सुरक्षित दुर्ग में निवास करते हैं, क्योंकि उनमें “दर्शन, तर्क-कुतर्क व मान्यताओं” के स्थान पर केवल “व्यावहारिक व सैद्धांतिक यथार्थता” ही समाहित होती है ! दर्शन जब तक अनुभव न बन जाए, वह केवल एक बौद्धिक विलास है । तर्क जब तक यथार्थ को प्रमाणित न करे, वह केवल कुतर्क और शब्द-जाल है । और मान्यताएँ जब तक सत्य की कसौटी पर खरी न उतरें, वे केवल मानसिक कारागार हैं । मेरे विचार इन तीनों से परे, सीधे यथार्थ पर आधारित हैं, और यथार्थ का प्रकाश सदा ही भ्रम के अंधकार में जी रहे लोगों के लिए नेत्रों को पीड़ा देने वाला होता है ।

इस यथार्थता के 2 स्तंभ हैं । पहला है “व्यावहारिक यथार्थता“, जिसका अर्थ है वह सत्य जिसे जिया गया है, जिसका अनुभव किया गया है, और जिसके परिणाम जीवन में प्रत्यक्ष देखे गए हैं । यह उस ज्ञानी का सत्य है जिसने शहद के स्वाद पर शास्त्र नहीं पढ़े, अपितु शहद को चखा है । आज के अपरिपक्व विद्वान केवल शास्त्रों को पढ़कर शहद के स्वाद की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं, किन्तु उनका ज्ञान उस मधुमक्खी के ज्ञान से भी तुच्छ है जो स्वयं शहद का निर्माण करती है । व्यावहारिक यथार्थता अनुभवजन्य ज्ञान है, और अनुभव के समक्ष सूचनाओं का पहाड़ भी बौना होता है ।

दूसरा स्तंभ है “सैद्धांतिक यथार्थता“, जिसका अर्थ है उन शाश्वत व सार्वभौमिक नियमों का ज्ञान, जो इस ब्रह्मांड और चेतना का संचालन करते हैं । यह कर्म के सिद्धांत की भांति है, जो किसी की मान्यता पर निर्भर नहीं करता । आप कर्म के सिद्धांत को मानें या न मानें, वह अपना फल देगा ही । यह सैद्धांतिक यथार्थता किसी व्यक्ति की परिकल्पना नहीं, अपितु ऋषियों द्वारा अपने अनुभव में साक्षात् किया गया ब्रह्मांड का संविधान है । यह किसी का दर्शन नहीं, यह अस्तित्व का नियम है । मेरे विचार इन्हीं अपरिवर्तनीय नियमों पर आधारित हैं, न कि किसी व्यक्ति या संप्रदाय द्वारा गढ़ी गई मान्यताओं पर ।

भारत के महान ऋषियों की परंपरा यही रही है । वे अपरिपक्व विद्वानों की भांति केवल मान्यताओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे । बृहदारण्यक उपनिषद् में महर्षि याज्ञवल्क्य का वृत्तांत इसका उत्कृष्ट प्रमाण है । राजा जनक की सभा में जब बड़े-बड़े ब्रह्मवादी विद्वान एकत्रित हुए, तो याज्ञवल्क्य ने केवल अपनी मान्यताएँ प्रस्तुत नहीं कीं, अपितु उन्होंने सभी को चुनौती दी कि वे अपने ज्ञान को यथार्थ के धरातल पर प्रमाणित करें । गार्गी जैसी विदुषी के प्रश्नों से उन्होंने कुतर्क नहीं किया, अपितु उसे यथार्थ की उस सीमा तक ले गए जहाँ शब्द समाप्त हो जाते हैं और अनुभव प्रारंभ होता है । यही यथार्थवादी दृष्टिकोण है जो बौद्धिक शांति भंग करके आत्म-जागृति को प्रेरित करता है ।

मेरा दृष्टिकोण “तर्क-कुतर्क” का विरोधी नहीं, अपितु “कुतर्क” का विरोधी है । कुतर्क वह है जो अहंकार की पुष्टि के लिए, वाद-विवाद में विजय प्राप्त करने के लिए या यथार्थ से पलायन करने के लिए किया जाता है । इसके विपरीत, “सत्तर्क” वह है जिसका प्रयोग कठोपनिषद् में नचिकेता ने यमराज के समक्ष किया था । नचिकेता का तर्क किसी को पराजित करने के लिए नहीं, अपितु मृत्यु के रहस्य जैसे परम सत्य को जानने के लिए था । सत्तर्क वह सीढ़ी है जो यथार्थता तक ले जाती है, जबकि कुतर्क एक ऐसा चक्रव्यूह है जो मान्यताओं में ही भटकाता रहता है ।

इसे एक ठोस उदाहरण से समझें । “धर्म” के विषय पर एक अपरिपक्व विद्वान विभिन्न स्मृतियों, पुराणों और भाष्यों के उद्धरणों में ही उलझा रहेगा । वह इस पर अंतहीन कुतर्क कर सकता है कि किस ग्रंथ की मान्यता अधिक श्रेष्ठ है । किन्तु यथार्थवादी दृष्टिकोण इस शब्द-जाल से परे जाकर प्रश्न करेगा- धर्म की व्यावहारिक यथार्थता क्या है ? इसका उत्तर है- वह कर्म जो व्यक्ति और समाज दोनों में धारणा, सामंजस्य और उत्थान लाए, वही धर्म है । इसका परिणाम प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । धर्म की सैद्धांतिक यथार्थता क्या है ? “धारयति इति धर्मः“, अर्थात जो धारण करे, वही धर्म है । यह सृष्टि के उस संतुलनकारी नियम का नाम है जो तारों से लेकर परमाणुओं तक को धारण करता है । जो आचरण इस सार्वभौमिक नियम के अनुकूल है, वही धर्म है । यह यथार्थता किसी ग्रंथ या मान्यता से बंधी नहीं है ।

अतः मेरे विचार उन सभी के लिए एक चुनौती हैं जो ज्ञान को अपने मस्तिष्क में सजाने की वस्तु मानते हैं । मैं ज्ञान को जीवन में उतारने और अनुभव करने का विषय मानता हूँ । यह मार्ग विचलित करने वाला अवश्य है, क्योंकि यह आपके सुखद मान्यताओं के सिंहासनों को ध्वस्त कर देता है और आपको यथार्थ की कठोर भूमि पर खड़ा होने के लिए विवश करता है । किन्तु यही एकमात्र मार्ग है जो विद्वता के भ्रम से निकालकर ज्ञान के सूर्य तक ले जा सकता है ।