समाज की आध्यात्मिक चेतना को दिशा देने वाले दो स्वरूप अक्सर हमारे समक्ष आते हैं- एक “संन्यासी” और दूसरा “बाबा” । बाह्य रूप से दोनों का वेश समान हो सकता है, किन्तु आंतरिक रूप से इनमें उतना ही अंतर है जितना प्रकाश और अंधकार में, या अमृत और विष में होता है । इन दोनों के मध्य के भेद को समझना आज के युग की सबसे बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि इसी विवेक पर समाज के उत्थान अथवा पतन का भविष्य निर्भर करता है ।
“संन्यासी” सनातन धर्म की आश्रम व्यवस्था का वह सर्वोच्च शिखर है, जहाँ व्यक्ति ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के क्रमिक सोपानों से गुज़रकर, जीवन के समस्त अनुभवों को आत्मसात करके पहुंचता है । संन्यासी अपनी सभी पैतृक अवस्थाओं को मृत्यु के बाद की प्रक्रियाओं (पिंडदान, श्राद्ध आदि) द्वारा स्थायी रूप से त्यागकर एक नवीन आध्यात्मिक जन्म लेता है । वह स्वयं के लिए मृत होकर समाज के लिए जीवित हो जाता है । वह किसी से किसी अपेक्षा के बिना और सभी राग, द्वेष आदि प्रपंचों से दूर अपने जप, तप, साधना, अनुष्ठानों से अपने आत्म-कल्याण व जन-कल्याण के निमित्त कर्म करता है । उसका एकमात्र उद्देश्य समाज को सद्कर्मों की शिक्षा, प्रेरणा, निर्देश व संदेश देकर उसका मार्गदर्शन करना होता है । वह समाज के प्रति वात्सल्यपूर्ण कर्म-व्यवहार से परिपूर्ण होता है, किन्तु कभी आवश्यकता पड़ने पर धर्म की स्थापना हेतु वज्र से भी कठोर होने का सामर्थ्य रखता है, जैसा कि आदि शंकराचार्य या समर्थ गुरु रामदास ने किया ।
संन्यासी की सबसे बड़ी पहचान उसकी शिक्षा में है । वह यह नहीं कहता कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त ऊर्जाओं का दमन करो । वह सिखाता है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार प्रकृति द्वारा प्रदत्त अभिन्न अंग व असीमित शक्तियाँ हैं । इनका यदि विनाश करने का प्रयास करोगे तो स्वयं नष्ट हो जाओगे । अतः इनका दमन नहीं, रूपांतरण करो । संन्यासी शिक्षा देता है कि इन असीम शक्तियों का “नियंत्रित सदुपयोग” ही गृहस्थ से लेकर अध्यात्म तक की यात्रा का सबसे बड़ा सहयोगी है । वह ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन की कला सिखाता है, जिससे वही काम ऊर्जा कुंडलिनी शक्ति में, वही क्रोध ऊर्जा संकल्प शक्ति में, और वही लोभ ऊर्जा ईश्वर प्राप्ति की अभीप्सा में रूपांतरित हो जाती है । स्वामी विवेकानंद इसी ऊर्जा रूपांतरण के सबसे बड़े प्रमाण थे, जिन्होंने अपने क्रोध को राष्ट्र के अपमान के विरुद्ध और अपनी करुणा को राष्ट्र के उत्थान के लिए channeled किया ।
वहीं इसके सर्वथा विपरीत, “बाबा” लोग कभी संन्यासियों के जैसा तो कभी ब्राह्मणों के जैसा भेष बनाकर समाज को भ्रमित करने का कार्य करते हैं । वे साधना के कठिन मार्ग को छोड़कर चमत्कार, जादू, टोना, देवी, देवता, भूत, प्रेत, ढोंग, पाखंड, व लालच आदि का भय या आकर्षण दिखाकर लोगों को अपने जाल में फँसाते हैं । वे समाज की सारी समस्याओं की स्वयं ही जड़ होते हुए भी, उन सभी समस्याओं का “शर्तिया इलाज” करने का झूठा आश्वासन देते हैं । यह प्रवृत्ति उतनी ही सनातन है जितना कि सत्य । पौराणिक काल में रावण ने भी माता सीता का हरण करने के लिए एक साधु का ही वेश बनाया था, जो इस “बाबा” वृत्ति का आदि प्रतीक है ।
ये बाबा लोग स्वयं “निगुरे” (बिना गुरु के) होते हुए भी, अपनी वाक्पटुता और चालाकी से सैकड़ों-हज़ारों लोगों के “गुरु” बन बैठते हैं । उनकी दृष्टि में समाज कोई जीवंत इकाई नहीं, बल्कि एक “लाभार्थ वस्तु (Asset)” है, जिसका उपभोग वे अपने स्वार्थ के लिए करते हैं । वे विभिन्न माध्यमों से धन-संपत्तियों व ख्याति अर्जित करने हेतु एक “भ्रामक व मीठी छुरी” बनकर समाज के नैतिक और आर्थिक स्वास्थ्य को धीरे-धीरे काटते रहते हैं । उनका सबसे बड़ा पाखंड उनकी शिक्षा में दिखाई देता है । वे मंच से समाज को काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को सबसे बड़ा दोष बताकर इनको सर्वथा त्यागने की शिक्षा देते हैं, और पर्दे के पीछे स्वयं उन सभी वृत्तियों का चरम स्तर पर भोग करते हैं । वे व्यंग्यात्मक रूप से समाज के सारे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार को खुद भोग करके समाज को “दोषमुक्त” करने का ढोंग करते हैं ।
इस सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पतन का कारण भी स्वयं समाज की चेतना में निहित है । आज का मनुष्य अपनी समस्याओं का त्वरित, चमत्कारी और बिना पुरुषार्थ वाला समाधान चाहता है । वह साधना के कठिन और धैर्यपूर्ण मार्ग पर नहीं चलना चाहता । वह अपनी आध्यात्मिक ज़िम्मेदारी किसी और पर डाल देना चाहता है । बाबा लोग मनुष्य की इसी कमज़ोरी का शोषण करते हैं । वे उसे वही देते हैं जो वह सुनना चाहता है- सरल उपाय, चमत्कार और झूठे आश्वासन । इसके विपरीत, एक सच्चा संन्यासी व्यक्ति को स्वयं पुरुषार्थ करने, तप करने और अपनी समस्याओं का समाधान अपने भीतर खोजने के लिए प्रेरित करता है, जो एक कठिन किन्तु स्थायी और कल्याणकारी मार्ग है ।
अतः संन्यासी और बाबा के मध्य का अंतर केवल वेश का नहीं, चेतना का है । संन्यासी समाज को देता है, बाबा समाज से लेता है । संन्यासी व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाता है, बाबा उसे पराश्रित बनाता है । संन्यासी ऊर्जा का रूपांतरण सिखाता है, बाबा ऊर्जा का भोग करता है । संन्यासी समाज का मार्गदर्शन करता है, बाबा समाज का शोषण करता है । समाज का कल्याण इसी में है कि वह इस सूक्ष्म भेद को समझे और काँच के टुकड़े को हीरा मानने की भूल न करे ।