जब यह स्थापित हो जाता है कि परम सत्ता एक है और उसके उपास्य स्वरूप अनेक हैं, जो कि मानवीय कल्पना और मानसिकता की उपज हैं, तो एक साधक के लिए सही आचार संहिता क्या होनी चाहिए ! इसका उत्तर आपके सूत्र के अंतिम भाग में स्पष्ट रूप से निहित है: “इसलिए अपने आराध्य ईष्ट की उपासना करें किंतु किसी अन्य के आराध्य ईष्ट के नाम, रंग, रूप व स्वरूप का अपमान कदापि ना करें !” यह वाक्य आध्यात्मिक जीवन का सार है, जो व्यक्तिगत निष्ठा और सार्वभौमिक सम्मान के बीच एक सुंदर संतुलन स्थापित करता है।
इसका प्रथम निर्देश है, ‘अपने आराध्य ईष्ट की उपासना करें’ । यह गहन साधना का मार्ग है। चेतना की बिखरी हुई शक्तियों को किसी एक बिंदु पर केंद्रित करने के लिए ‘ईष्ट’ का वरण अत्यंत आवश्यक है। जैसे एक छात्र को ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी एक विद्यालय और एक पाठ्यक्रम के प्रति समर्पित होना पड़ता है, या एक प्रेमी को अपने प्रेम की गहराई अनुभव करने के लिए किसी एक प्रियतम के प्रति निष्ठावान होना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार एक साधक को अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को घनीभूत करने के लिए एक आराध्य स्वरूप को चुनना होता है। यह स्वरूप उसका ‘ईष्ट’ कहलाता है, जो उसकी प्रकृति के सर्वाधिक अनुकूल होता है।
इस एक स्वरूप के प्रति पूर्ण समर्पण साधक को सतही कर्मकांडों से उठाकर गहन अनुभव के धरातल पर ले जाता है। वह अपने ईष्ट के नाम का जप करता है, उसके रूप का ध्यान करता है, उसकी लीलाओं का चिंतन करता है, और धीरे-धीरे उसका मन सांसारिक विषयों से हटकर दिव्य गुणों से भरने लगता है। यह प्रक्रिया मन को शुद्ध और एकाग्र करती है। जिस प्रकार सूर्य की किरणों को एक आवर्धक लेंस (magnifying glass) से केंद्रित करने पर वे अग्नि उत्पन्न कर सकती हैं, उसी प्रकार मन की समस्त वृत्तियों को एक ईष्ट पर केंद्रित करने से ज्ञान और भक्ति की अग्नि प्रज्वलित हो उठती है। यह exclusiveness या अन्य स्वरूपों का तिरस्कार नहीं, बल्कि अपनी साधना की प्रभावशीलता के लिए अपनाया गया एक पवित्र अनुशासन है। एक सच्चा भक्त अपने ईष्ट में ही संपूर्ण ब्रह्मांड को और संपूर्ण ब्रह्मांड में अपने ईष्ट को देखने लगता है।
इसी गहन अनुभव से दूसरा निर्देश स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है :- ‘किंतु किसी अन्य के आराध्य ईष्ट के नाम, रंग, रूप व स्वरूप का अपमान कदापि ना करें !’ जो व्यक्ति अपनी साधना में सचमुच गहरा उतरता है, उसे यह स्वतः ही अनुभव होने लगता है कि जिस शांति, प्रेम और दिव्यता का अनुभव वह अपने ईष्ट के सान्निध्य में कर रहा है, वही तो दूसरे भक्त भी अपने-अपने ईष्टों के माध्यम से कर रहे हैं। उसे यह बोध हो जाता है कि नाम, रंग और स्वरूप तो केवल बाहरी आवरण हैं, पात्र हैं; उन सभी के भीतर एक ही दिव्य अमृत भरा हुआ है।
किसी अन्य के आराध्य का अपमान करना तीन स्तरों पर एक गंभीर आध्यात्मिक भूल है: –
पहला, यह उस परम ‘अदृश्य सत्ता’ का अपमान है। चूंकि सभी स्वरूप उसी एक के प्रतिबिंब हैं, किसी एक स्वरूप का तिरस्कार करना या उसे झूठा कहना, उस एक परम स्रोत की अनंत संभावनाओं का ही अपमान करना है। यह ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि ‘मुझे सागर तो पसंद है, पर मैं उसकी अमुक लहर से घृणा करता हूं ।’ यह एक आध्यात्मिक अज्ञानता है।
दूसरा, यह उस भक्त की भावना का अपमान है। किसी भी आस्तिक के लिए उसका आराध्य केवल पत्थर या चित्र नहीं होता, वह उसकी आस्था, उसके प्रेम, उसके आंसुओं और उसकी प्रार्थनाओं का जीवंत केंद्र होता है। किसी के ईष्ट का अपमान करना उसके हृदय के सबसे पवित्र और संवेदनशील स्थान पर आघात करने जैसा है। यह एक हिंसक कृत्य है जो सामाजिक द्वेष और वैमनस्य को जन्म देता है, जिसकी चर्चा हमने पूर्व में की थी।
तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण, यह स्वयं अपनी आध्यात्मिक प्रगति में बाधा उत्पन्न करना है। घृणा, निंदा और असहिष्णुता जैसे नकारात्मक भाव साधक के अपने ही चित्त में विष घोलते हैं। जिस हृदय में किसी अन्य के आराध्य के लिए द्वेष भरा हो, उस हृदय में स्वयं अपने आराध्य का प्रेम पूरी तरह से कैसे खिल सकता है ! दूसरों के मार्ग को गलत सिद्ध करने का अहंकार व्यक्ति को अपने मार्ग पर आगे बढ़ने से रोक देता है। एक सच्चा साधक अपनी ऊर्जा दूसरों की आलोचना में नहीं, बल्कि अपनी साधना को गहरा करने में लगाता है।
अतः, आध्यात्मिक परिपक्वता का लक्षण यह है कि व्यक्ति अपने ईष्ट के प्रति एकनिष्ठ होते हुए भी, अन्य सभी ईष्टों और उनके भक्तों के प्रति गहरा सम्मान का भाव रखे। जब वह किसी चर्च के सामने से गुजरे तो उसी श्रद्धा से सिर झुकाए, जिस श्रद्धा से मंदिर के सामने झुकाता है। जब वह किसी को नमाज़ पढ़ते देखे, तो उसके भीतर वही पवित्रता का भाव जगे जो किसी को संध्या-वंदन करते देख कर जगता है। वह स्वरूपों के भेद से परे जाकर, उन सभी में निहित एक ही भक्ति, एक ही समर्पण और एक ही दिव्य पुकार को पहचानने लगे। यही वास्तविक सम-दृष्टि है। यही वह अवस्था है जहां धर्म जोड़ता है, तोड़ता नहीं; जहां अनेकता में एकता का दिव्य संगीत सुनाई देने लगता है।