साधक जब योग और तप की गहराई में उतरता है, तो उसे अनेक प्रकार की असाधारण शक्तियाँ प्राप्त होती हैं । पतंजलि योगसूत्र में इन्हें “विभूतियाँ” कहा गया है । ये विभूतियाँ सुनने और देखने में आकर्षक लगती हैं । उदाहरण के लिए—दूर की वस्तुओं को देखना, दूसरों के मन की बात जान लेना, तत्वों पर नियंत्रण प्राप्त करना, या किसी के दुःख को क्षणिक रूप से दूर कर देना । लेकिन योगसूत्र के आचार्यों ने बार-बार यह चेतावनी दी है कि साधक को इन विभूतियों में उलझना नहीं चाहिए ।
सिद्धियों का वास्तविक उपयोग केवल तीन स्तरों पर ही उचित माना गया है । पहला, रक्षात्मक उपयोग—साधना को बाहरी नकारात्मक शक्तियों से सुरक्षित रखने के लिए । दूसरा, नैमित्तिक हस्तक्षेप—जब कोई साधक, शिष्य या भक्त कठिनाई में हो और उसकी साधना रुकने लगे, तब अस्थायी सहयोग देना । तीसरा, प्रेरणा का साधन—कभी-कभी सिद्धियाँ दूसरों को अध्यात्म की ओर आकर्षित करने का माध्यम बन सकती हैं ।
लेकिन इन सीमाओं से बाहर जाकर यदि कोई साधक सिद्धियों का दुरुपयोग करता है, तो यह उसके लिए घातक सिद्ध होता है । इतिहास गवाह है कि अनेक साधक सिद्धियों में उलझकर पतन को प्राप्त हुए । सिद्धियों का प्रयोग यदि केवल चमत्कार दिखाने, धन कमाने, प्रतिष्ठा पाने या लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए हो, तो वह साधक की साधना को समाप्त कर देता है । ऐसी स्थिति में साधक अपने मार्ग से भटक जाता है और आत्मज्ञान से दूर हो जाता है ।
यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि गुरु और साधक, दोनों को सिद्धियों से सावधान रहना चाहिए । गुरु यदि अपने शिष्यों के सामने केवल सिद्धियाँ प्रदर्शित करने लगे, तो शिष्य का ध्यान भी उसी ओर केंद्रित हो जाएगा । फिर साधना और आत्मज्ञान का मूल लक्ष्य पीछे छूट जाएगा । सच्चा गुरु वही है, जो शिष्य को यह सिखाए कि सिद्धियाँ केवल साधन हैं, साध्य नहीं ।
साधकों के लिए संदेश यही है कि जब सिद्धियाँ प्राप्त हों, तो उन्हें सहज रूप से स्वीकार करें, किंतु उनमें आसक्त न हों । उनका उपयोग केवल रक्षात्मक या नैमित्तिक उद्देश्य के लिए करें । हमेशा स्मरण रखें कि कर्म और भाग्य का परिवर्तन सिद्धियों से नहीं, बल्कि साधना और गुरु-मार्गदर्शन से होता है ।
जीवन की पीड़ा से अस्थायी राहत को स्थायी समाधान समझना भूल है । यह राहत कुछ समय के लिए शांति अवश्य देती है, किंतु जब सिद्धि का प्रभाव समाप्त होता है, तो जीवन का प्रवाह फिर उसी बिंदु से प्रारंभ हो जाता है । इसलिए सच्चा साधक वही है, जो इस अस्थायी राहत को पहचानकर भी अपने मार्ग से विचलित न हो और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर रहे ।
दूसरे लेख का निष्कर्ष यह है कि सिद्धियाँ अध्यात्म की राह में आने वाले सुंदर लेकिन भ्रामक पड़ाव हैं । उनका उपयोग तभी सार्थक है, जब वे साधना की रक्षा और दूसरों की अस्थायी सहायता तक सीमित रहें । अन्यथा वे साधक के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकती हैं । वास्तविक साधक वही है, जो सिद्धियों को पार कर, गुरु के मार्गदर्शन में आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर बढ़े ।