सम्पूर्ण सृष्टि का ईश्वर तो केवल एक ही है, वह भी निराकार है । उसी एक सत्ता को भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में, अपनी-अपनी भाषा के अनुसार ईश्वर, अल्लाह, खुदा, गॉड, रब आदि नामों से केवल पुकारा जाता है । किन्तु, किसी के पुकारने मात्र से वह परमेश्वर किसी संस्कृति विशेष की एक पृथक् भौतिक सत्ता नहीं बन जाता । वह एक है, सर्वदा एक ही रहेगा । यह एक ऐसा अकाट्य सनातन सत्य है, जिसकी अनुगूंज हमारे वेदों और उपनिषदों से लेकर समस्त संत-ज्ञानियों की वाणी में मुखर हुई है । तथापि, यह मानव जाति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जो सत्य सबसे सरल और सहज है, उसी को समझने में उसने सबसे अधिक भूल की है, और इसी एक भूल के कारण उसने पृथ्वी को रक्त से रंजित करने में कोई संकोच नहीं किया ।
मनुष्य अपनी सीमित इन्द्रियों और अपनी अल्पज्ञ बुद्धि के माध्यम से ही इस जगत को जानने का प्रयास करता है । वह जो देखता है, जो सुनता है, उसी को सत्य मान बैठता है । यहीं से माया का प्रपंच आरम्भ होता है । वह निराकार, निर्गुण, अनाम सत्ता जब मनुष्य की चेतना में प्रवेश करती है, तो मनुष्य उसे अपनी समझ के अनुसार कोई नाम, कोई रूप, कोई गुण प्रदान कर देता है । यह नाम और रूप देना उसकी पूजा-पद्धति व उपासना के लिए आवश्यक हो सकता है, किन्तु यही उसकी सबसे बड़ी भूल का कारण भी बन जाता है । वह धीरे-धीरे उस प्रतीक को ही सत्य मान लेता है और उस परम सत्य को विस्मृत कर देता है जिसका वह प्रतीक मात्र था । वह ईश्वर के नाम को ही ईश्वर मान लेता है और यहीं से भेद का, द्वैत का, और पृथकता का जन्म होता है । जब एक संस्कृति कहती है कि हमारा ‘ईश्वर’ ही सत्य है, और दूसरी कहती है कि हमारा ‘अल्लाह’ ही एकमात्र उपासनीय है, तो वे दोनों ही अज्ञान के घोर अंधकार में भटक रहे होते हैं । वे दोनों उस एक ही चन्द्रमा की ओर उंगली तो उठाते हैं, किन्तु वे अपनी-अपनी उंगली को ही चन्द्रमा समझकर आपस में विवाद करने लगते हैं ।
इस अज्ञान का परिणाम अत्यंत भयंकर हुआ है । इसी ‘मेरा-तेरा’ के भेद ने सम्प्रदायों को जन्म दिया, और इन्हीं सम्प्रदायों ने पंथों व मतों की ऐसी दीवारें खड़ी कर दीं, जिन्हें लांघना असम्भव सा प्रतीत होने लगा । धर्म, जो मनुष्य को उस एक सत्ता से जोड़ने का माध्यम था, वही मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने का सबसे बड़ा शस्त्र बन गया । इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितने संघर्ष और जितनी हिंसा ‘ईश्वर’ के नाम पर हुई है, उतनी किसी अन्य कारण से नहीं हुई । यह घोर विडम्बना ही है कि जिस परमेश्वर का स्वरूप ही प्रेम और करुणा है, उसी के नाम पर घृणा और विद्वेष का व्यापार किया गया । इस समस्या का मूल कारण केवल एक है – तत्त्वज्ञान का अभाव । मनुष्य ने उस परम तत्त्व को जानने का प्रयास ही नहीं किया जो इन सभी नामों और रूपों के परे है और इन सबका एकमात्र आधार है ।
किंतु इस गहन अंधकार में प्रकाश की किरण हमारे ही प्राचीन ऋषियों के ज्ञान में विद्यमान है । उन्होंने किसी एक नाम या रूप पर बल नहीं दिया, अपितु उस एक ‘तत्त्व’ को जानने और अनुभव करने पर बल दिया । हमारे वेदों ने आज से सहस्रों वर्ष पूर्व ही इस सम्पूर्ण विवाद का समाधान एक ही सूत्र में कर दिया था, जब उन्होंने उद्घोष किया –
“एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति । अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।।”
अर्थात्, सत्य तो केवल एक ही है, जिसे ज्ञानीजन अनेक नामों से पुकारते हैं । कोई उसे अग्नि कहता है, कोई यम, तो कोई मातरिश्वा (वायु) । यह वैदिक ऋचा स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करती है कि नाम अनेक हो सकते हैं, किन्तु जिस सत्य (सत्) की ओर वे संकेत कर रहे हैं, वह एक और अद्वितीय है । इसी ज्ञान को उपनिषदों ने और अधिक गहनता से समझाया । उन्होंने उस एक निराकार सत्ता को ‘ब्रह्म’ की संज्ञा दी और कहा – “सर्वं खल्विदं ब्रह्म” अर्थात् यह जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब ब्रह्म ही है । उपनिषदों ने किसी पूजा-पद्धति या कर्मकांड को नहीं, अपितु ‘ब्रह्म-ज्ञान’ को ही मोक्ष का एकमात्र साधन बताया । उन्होंने समझाया कि जब तक जीव स्वयं को और ब्रह्म को पृथक्-पृथक् समझता है, तब तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकता रहता है, किन्तु जिस क्षण उसे “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ही ब्रह्म हूँ) या “तत्त्वमसि” (वह तू ही है) का बोध हो जाता है, उसी क्षण वह समस्त भेदों और बंधनों से मुक्त हो जाता है ।
इसी परम ज्ञान की धारा को मध्यकाल के संतों ने अपनी सरल और सहज भाषा में जन-जन तक पहुँचाया । संत कबीर ने हिन्दू-मुसलमान दोनों के पाखंड पर कठोर प्रहार करते हुए उसी एक निराकार सत्य की उपासना का संदेश दिया । उन्होंने कहा –
“जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तथ कथौ गियानी ।।”
अर्थात्, जैसे घड़े के अंदर और बाहर एक ही जल तत्व व्याप्त है, और घड़े के टूट जाने पर वह भीतर का जल उसी महा-जल में विलीन हो जाता है, उसमें कोई भेद नहीं रहता, ठीक उसी प्रकार यह शरीर और ये सम्प्रदाय एक घड़े के समान हैं, जिनके भीतर और बाहर वही एक परमात्मा रूपी जल व्याप्त है । जब तक घड़े का अहंकार है, तब तक भेद है । जिस दिन यह देह-अभिमान और साम्प्रदायिक अहंकार रूपी घड़ा टूटता है, उसी क्षण आत्मा उस परमात्मा में विलीन होकर एक हो जाती है । तब न कोई हिन्दू रहता है, न कोई मुसलमान, केवल वह एक सत्य ही शेष रहता है । गुरु नानक देव जी ने भी “एक ओंकार सतनाम” का उपदेश देकर उसी एक परम सत्य की ओर संकेत किया ।
अतः, समाधान किसी नवीन धर्म की स्थापना में या किसी पुराने धर्म के खंडन में नहीं है, अपितु धर्म के वास्तविक मर्म को, उसके मूल तत्त्व को समझने में है । समाधान है तत्त्वबोध । जब मनुष्य यह समझ लेता है कि ईश्वर, अल्लाह, गॉड आदि केवल उस एक ही अनन्त, असीम, निराकार सत्ता के लिए प्रयुक्त होने वाले भिन्न-भिन्न सम्बोधन मात्र हैं, तो सारा संघर्ष, सारा विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाता है । जैसे किसी एक ही व्यक्ति को कोई पुत्र कहकर पुकारता है, कोई पिता, कोई भ्राता और कोई मित्र, किन्तु इन भिन्न-भिन्न सम्बोधनों से वह व्यक्ति भिन्न-भिन्न नहीं हो जाता, वह तो एक ही रहता है, उसी प्रकार उस परमपिता को किसी भी नाम से पुकारें, वह एक ही रहता है । आवश्यकता है कि हम नामों और रूपों की परिधि से बाहर निकलकर उस अनाम और अरूप सत्ता का साक्षात्कार करें । जिस दिन मानवता इस एक सत्य को आत्मसात् कर लेगी, उसी दिन इस धरा पर वास्तविक शांति और प्रेम का साम्राज्य स्थापित होगा और यही हमारे ऋषियों का, हमारे ज्ञानियों का, और हमारे संतों का शाश्वत संदेश है ।