चमत्कार का आकर्षण और आध्यात्मिक सत्य का अनावरण !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

मानव चेतना की गहराइयों में एक आदिम आकर्षण छिपा है – अज्ञात के प्रति, अलौकिक के प्रति । यह वही आकर्षण है जो हमें तारों भरे आकाश को निहारने के लिए विवश करता है, जो हमें जीवन और मृत्यु के रहस्यों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है । इसी आकर्षण का एक स्वाभाविक उप-उत्पाद है चमत्कार के प्रति हमारा सहज खिंचाव । जब कोई व्यक्ति प्रकृति के स्थापित नियमों को तोड़ता हुआ या सामान्य मानवीय क्षमताओं से परे कुछ करता हुआ प्रतीत होता है, तो हमारा मन विस्मय, आश्चर्य और एक गहरे कौतूहल से भर जाता है । यह एक स्वाभाविक मानवीय प्रतिक्रिया है । परंतु, जब यह आकर्षण अंधश्रद्धा में और विस्मय विवेकहीन अनुसरण में बदल जाता है, तब अध्यात्म का मार्ग कंटकाकीर्ण हो जाता है । कोई व्यक्ति चाहे कितना ही बड़ा सिद्ध तपस्वी क्यों न हो, किन्तु यदि वह अपनी सिद्धियों, शक्तियों या तंत्र-मंत्र से किसी भी प्रकार का चमत्कार प्रदर्शित कर रहा है, तो हमें सावधान होने की आवश्यकता है । यह केवल उस व्यक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि उसके अनुयायियों, समाज और स्वयं आध्यात्मिक खोज की पवित्रता के लिए भी घातक सिद्ध हो सकता है । इस विषय की गंभीरता को समझने के लिए हमें इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पहलुओं पर गहनता से विचार करना होगा ।

सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि चमत्कार की लालसा उत्पन्न कहाँ से होती है । अधिकांशतः, यह हमारे दुखों, हमारी सीमाओं और हमारी असहायता की भावना से जन्म लेती है । जब कोई व्यक्ति शारीरिक रोग, मानसिक पीड़ा, आर्थिक संकट या सामाजिक समस्याओं से घिरा होता है, तो वह एक त्वरित और चमत्कारी समाधान की खोज में लग जाता है । वह तर्क और धैर्य के मार्ग को छोड़कर किसी ऐसे व्यक्ति या शक्ति की शरण लेना चाहता है जो पलक झपकते ही उसकी समस्त समस्याओं का निवारण कर दे । यह मानवीय मनोविज्ञान की एक दुर्बलता है, और यही दुर्बलता चमत्कार दिखाने वाले सिद्धों और तथाकथित गुरुओं के लिए सबसे उपजाऊ भूमि बनती है । वे लोगों की इसी पीड़ा और désespoir (हताशा) का लाभ उठाते हैं । वे अपनी सिद्धियों का प्रदर्शन करके यह भ्रम उत्पन्न करते हैं कि उनके पास सभी समस्याओं का दिव्य समाधान है । लोग उनकी शक्ति के प्रदर्शन से अभिभूत होकर अपनी तर्क-बुद्धि को ताक पर रख देते हैं और अपना तन, मन और धन सब कुछ उनके चरणों में समर्पित कर देते हैं । वे यह भूल जाते हैं कि सच्चा आध्यात्मिक मार्ग किसी शॉर्टकट या बाहरी समाधान का नाम नहीं है, बल्कि वह तो आंतरिक रूपांतरण, आत्म-सुधार और कर्म के सिद्धांत की गहरी समझ का मार्ग है ।

यहाँ हमें “जादू, चमत्कार” और “अध्यात्म” के मूल भेद को समझना होगा । जादू या चमत्कार का स्वभाव ही प्रदर्शनकारी है । इसकी सफलता इसी बात पर निर्भर करती है कि उसे कितने लोग देख रहे हैं और कितने लोग उससे प्रभावित हो रहे हैं । इसमें हमेशा कुछ न कुछ छिपाया जाता है – या तो हाथ की सफाई, या किसी गुप्त तकनीक का प्रयोग, या फिर सिद्धियों के पीछे की कार्य-कारण श्रृंखला । दर्शक केवल परिणाम देखता है – हवा में से वस्तु का प्रकट होना, किसी रोग का अकस्मात् ठीक हो जाना – लेकिन उस परिणाम तक पहुँचने की प्रक्रिया उससे छिपाई जाती है । यही रहस्य और पर्दा ही चमत्कार का प्राण है । इसके विपरीत, अध्यात्म का स्वभाव पूर्णतः पारदर्शी और आंतरिक है । अध्यात्म में छिपाने के लिए कुछ भी नहीं है क्योंकि वहाँ कुछ भी बाहरी नहीं है जिसे प्रदर्शित किया जा सके । अध्यात्म का समस्त खेल अंतःकरण में खेला जाता है । यह चित्त की वृत्तियों का निरोध है, यह अहंकार का विसर्जन है, यह आत्म-साक्षात्कार की मौन यात्रा है । एक सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति या गुरु आपको कोई चमत्कार नहीं दिखाएगा; बल्कि वह आपको स्वयं आपके भीतर छिपे हुए सत्य को देखने की दृष्टि प्रदान करेगा । वह आपको किसी बाहरी शक्ति पर निर्भर बनाने के बजाय आपको आत्मनिर्भर और आत्म-ज्ञानी बनाएगा । उसकी शिक्षाओं में कोई रहस्य या छिपाव नहीं होगा, सब कुछ स्पष्ट और प्रत्यक्ष होगा । इसलिए, जो व्यक्ति चमत्कार दिखा रहा है, वह मूलतः अध्यात्म के विरुद्ध आचरण कर रहा है । वह आपको बाहर की ओर भटका रहा है, जबकि यात्रा भीतर की ओर होनी थी ।

जब कोई सिद्ध पुरुष अपनी शक्तियों का सार्वजनिक प्रदर्शन करता है, तो वह जाने-अनजाने में समाज में कई घातक प्रवृत्तियों को जन्म देता है । सबसे पहला और सबसे स्पष्ट खतरा है शोषण का । अनुयायी अपनी समस्याओं के समाधान के लिए उस सिद्ध पुरुष पर आर्थिक रूप से निर्भर हो जाते हैं । वे अपनी मेहनत की कमाई को दान, चढ़ावे और विशेष अनुष्ठानों के नाम पर लुटा देते हैं, इस आशा में कि चमत्कार से उनका जीवन बदल जाएगा । यह एक प्रकार का आध्यात्मिक धोखा है, जहाँ व्यक्ति की श्रद्धा का उसकी पीड़ा का लाभ उठाकर सौदा किया जाता है । धन का यह अपव्यय न केवल उस व्यक्ति और उसके परिवार को आर्थिक रूप से कमज़ोर करता है, बल्कि समाज में एक परजीवी संस्कृति को भी बढ़ावा देता है, जहाँ कर्म और पुरुषार्थ के स्थान पर चमत्कार और कृपा को अधिक महत्त्व दिया जाने लगता है । आर्थिक शोषण से भी कहीं अधिक सूक्ष्म और खतरनाक है भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक शोषण । अनुयायी उस सिद्ध पुरुष पर मानसिक रूप से इस कदर निर्भर हो जाते हैं कि वे अपने जीवन का कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले पाते । उनकी स्वतंत्र विचार-शक्ति कुंद हो जाती है और वे एक प्रकार के बौद्धिक दास बन जाते हैं । गुरु जो कहता है, वही उनके लिए अंतिम सत्य होता है, चाहे वह कितना ही अतार्किक या अनैतिक क्यों न हो । यह निर्भरता व्यक्ति के आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास को नष्ट कर देती है और उसे एक कमज़ोर, दिशाहीन प्राणी बनाकर छोड़ देती है ।

इसके अतिरिक्त, समाज पर इसका प्रभाव और भी व्यापक होता है । जब समाज में चमत्कार और सिद्धियों को अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगता है, तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्कसंगत सोच का ह्रास होता है । लोग अपनी समस्याओं के वास्तविक कारणों का विश्लेषण करने और उनका व्यावहारिक समाधान खोजने के बजाय चमत्कारी हस्तक्षेप की प्रतीक्षा करने लगते हैं । यह सामाजिक प्रगति में एक बहुत बड़ी बाधा है । कृषि, चिकित्सा, शिक्षा और प्रशासन जैसे क्षेत्रों में जहाँ कर्म, योजना और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, वहाँ भी लोग अलौकिक शक्तियों से समाधान की उम्मीद करने लगते हैं, जिससे संपूर्ण व्यवस्था चरमरा सकती है । यह समाज को मध्ययुगीन अंधविश्वासों की ओर धकेलता है और एक स्वस्थ, प्रगतिशील और तार्किक समाज के निर्माण में बाधा उत्पन्न करता है । एक और महत्वपूर्ण पहलू है अहंकार का पोषण । योग और तंत्र के ग्रंथों में स्पष्ट रूप से चेतावनी दी गई है कि सिद्धियाँ आध्यात्मिक मार्ग में आने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ हैं । वे साधक के अहंकार को इस हद तक बढ़ा सकती हैं कि वह स्वयं को ईश्वर या सर्वशक्तिमान समझने लगता है । जब कोई सिद्ध पुरुष अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करता है, तो उसे प्रशंसा, सम्मान और पूजा मिलती है, जो उसके अहंकार को और अधिक पोषित करती है । अहंकार का यह पोषण उसे उसके अंतिम लक्ष्य – मोक्ष या आत्म-साक्षात्कार – से बहुत दूर ले जाता है । वह सिद्धियों के जाल में उलझकर रह जाता है और अपनी आध्यात्मिक यात्रा को वहीं समाप्त कर लेता है । वह स्वयं तो भटकता ही है, साथ ही अपने अनुयायियों को भी भ्रम के गहरे गर्त में धकेल देता है । वह गुरु की पदवी पर बैठकर ईश्वर और भक्त के बीच एक दीवार बन जाता है, जबकि एक सच्चे गुरु का कार्य तो उस दीवार को गिराना होता है । सच्चा गुरु तो एक सेतु है, जो शिष्य को परमात्मा से जोड़ता है, न कि एक ऐसा अवरोध जो शिष्य को स्वयं में उलझा ले ।

अंततः, प्रश्न वही उठता है: वह चमत्कार दिखाना ही क्यों चाहता है ? यदि उसके पास वास्तव में कोई शक्ति है, तो उसका प्रयोजन क्या है ? क्या उसका उद्देश्य लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना है, अपनी महत्ता स्थापित करना है, या धन और सम्मान अर्जित करना है ? यदि इनमें से कोई भी उद्देश्य है, तो यह स्पष्ट रूप से एक आध्यात्मिक पथभ्रष्टता का संकेत है । यह दर्शाता है कि वह व्यक्ति अभी भी सांसारिक इच्छाओं – कीर्ति, पूजा, और सत्ता – से ऊपर नहीं उठ पाया है । एक सच्चा आत्म-ज्ञानी पुरुष इन सब चीजों से परे होता है । उसे किसी को कुछ भी सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती । उसका जीवन स्वयं एक संदेश होता है । उसकी शांति, उसकी करुणा, उसका निस्वार्थ प्रेम ही उसका सबसे बड़ा चमत्कार होता है, जिसके लिए किसी प्रदर्शन की आवश्यकता नहीं होती । वह तो एक खिले हुए पुष्प की भाँति होता है, जिसकी सुगंध बिना किसी प्रयास के स्वतः ही चारों ओर फैल जाती है । जो मधुमक्खियाँ (सच्चे साधक) होती हैं, वे स्वयं ही उसकी ओर खिंची चली आती हैं । उसे ढोल पीटकर यह बताने की आवश्यकता नहीं होती कि वह एक पुष्प है । इसलिए, जब भी हम किसी को चमत्कार या सिद्धि का प्रदर्शन करते हुए देखें, तो प्रभावित होने या अंधानुकरण करने के बजाय, हमें विवेक और सावधानी से काम लेना चाहिए । हमें स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए कि इस प्रदर्शन के पीछे का वास्तविक उद्देश्य क्या है । क्या यह हमें आत्म-निर्भर बना रहा है या पर-निर्भर ? क्या यह हमें भीतर की ओर ले जा रहा है या बाहर की ओर भटका रहा है ? क्या यह हमारे अहंकार को पोषित कर रहा है या उसे विगलित करने में सहायता कर रहा है ? इन प्रश्नों के उत्तर ही हमें एक सच्चे गुरु और एक मायावी जादूगर के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देंगे और हमें आध्यात्मिक मार्ग पर सुरक्षित रखने में सहायता करेंगे । अध्यात्म का मार्ग दिखाने का नहीं, बल्कि होने का है; पाने का नहीं, बल्कि मिटने का है; और चमत्कार करने का नहीं, बल्कि स्वयं एक रूपांतरित जीवन जीने का है ।