श्री केदारनाथ धाम “हिमवत् वैराग्य पीठ” से पर्यटन नगरी तक की दु:खद यात्रा !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

श्री केदारनाथ जी की नगरी, जो कि परम आध्यात्मिक “हिमवत् वैराग्य पीठ” के नाम व प्रभाव से आदिकाल से जानी जाती थी, अब यह मध्य हिमालय के इस महत्वपूर्ण तीर्थ से साधु, तपस्वी, संतों के आध्यात्मिक साधना व तपस्या करने योग्य स्थलों एवं वातावरण को समेटते हुए लगभग पर्यटन नगरी का स्वरूप ले चुकी है । यह केवल एक स्थान का रूपांतरण नहीं, अपितु एक संपूर्ण चेतना का पतन है, एक ऐसी आध्यात्मिक धरोहर का क्षरण है जिसकी भरपाई संभवतः कभी नहीं हो सकेगी । जिस भूमि को सांसारिक मोह-माया से विरक्त होकर आत्म-तत्व में रमण करने वाले साधकों के लिए जाना जाता था, आज वह स्वयं भौतिकता की चकाचौंध में अपनी पहचान खोती जा रही है ।

इस पीठ की आध्यात्मिक गरिमा का सबसे बड़ा प्रमाण तो स्वयं जगद्गुरु आदि शंकराचार्य हैं। मात्र 32 वर्ष की आयु में, संपूर्ण भारतवर्ष में सनातन धर्म की पताका को पुनर्स्थापित करने के पश्चात, उस महान आत्मा ने अपने नश्वर देह के त्याग के लिए इसी केदार भूमि को चुना। यह कोई सामान्य घटना नहीं थी। यह इस बात का उद्घोष था कि केदारनाथ धाम केवल एक मंदिर नहीं, अपितु सांसारिक यात्रा के समापन और परम वैराग्य में स्थित हो जाने का अंतिम गंतव्य है। इसी कारण यह भूमि “हिमवत् वैराग्य पीठ” कहलाई, क्योंकि यहाँ की वायु में, यहाँ के कण-कण में वैराग्य की वह ऊर्जा व्याप्त थी जो साधकों को अनायास ही अपनी ओर खींच लाती थी ।

किंतु विडंबना देखिए, मानव की नश्वर आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धीरे-धीरे श्री केदारनाथ जी की नगरी अपने उस परम आध्यात्मिक “हिमवत् वैराग्य पीठ” स्वरूप को खोकर एक तीर्थाटन व पर्यटन नगरी के भौतिक वैभवमय स्वरूप में निखरती जा रही है। वर्ष 2013 में आई विनाशकारी आपदा वस्तुतः प्रकृति का एक कठोर संदेश थी, एक चेतावनी थी कि इस देवभूमि की मर्यादाओं का उल्लंघन न किया जाए। किंतु हमने उस चेतावनी से सीखने के स्थान पर, उसे इस पवित्र भूमि के व्यवसायीकरण का एक अवसर बना लिया। सुरक्षा, सुविधा और पुनर्निर्माण के नाम पर कंक्रीट का ऐसा जाल बिछाया गया जिसने धाम की प्राचीन, तपोनिष्ठ और नैसर्गिक आत्मा को ही ढक दिया ।

आज स्थिति यह है कि केदारनाथ धाम में “तीर्थयात्री” कम और “पर्यटक” अधिक दिखाई देते हैं। तीर्थयात्री वह होता है जो कष्ट सहकर, श्रद्धा भाव से, आत्म-शुद्धि के संकल्प के साथ देव-दर्शन को आता है । उसकी यात्रा बाहर से अधिक भीतर की होती है। इसके विपरीत, पर्यटक वह है जो मनोरंजन, अवकाश, फोटोग्राफी और भौतिक सुविधाओं की लालसा लेकर आता है । उसकी दृष्टि मंदिर के गर्भ गृह से अधिक सुंदर दृश्यों और सोशल मीडिया पर साझा करने योग्य तस्वीरों को खोजती है। आज केदारनाथ का संपूर्ण तंत्र इसी पर्यटक की आवश्यकताओं को पूरा करने में लगा है। हेलीकॉप्टरों का अनियंत्रित शोर उस दिव्य मौन को भंग करता है जो ध्यान और साधना के लिए अनिवार्य है । प्लास्टिक और अन्य कचरे के ढेर उस निर्मल प्रकृति का अपमान करते हैं जो स्वयं शिव का स्वरूप है ।

इस भौतिक विकास की अंधी दौड़ में हमने उन साधु-संतों और तपस्वियों के अंतिम आश्रय स्थलों को भी छीन लिया है जो इस पीठ की जीवंत आत्मा थे। जिन गुफाओं में बैठकर वे साधना करते थे, जिन शांत स्थलों पर वे ध्यानस्थ होते थे, आज वहाँ दुकानें, होटल और सेल्फी पॉइंट बन गए हैं। वातावरण में साधना की तरंगों के स्थान पर अब बाजार का कोलाहल और भौतिक इच्छाओं का स्पंदन है। ऐसे में कोई भी सच्चा साधक वहाँ कैसे टिक सकता है? परिणाम यह है कि “हिमवत् वैराग्य पीठ” अब वैरागियों से ही शून्य होता जा रहा है ।

अर्थात् वह समय अब दूर नहीं है जब “हिमवत् वैराग्य पीठ” नाम सुनकर स्वयं केदारघाटी के निवासी भी चौंककर यह पूछेंगे कि यह “हिमवत् वैराग्य पीठ” क्या है और यह कहाँ पर स्थित है? यह केवल एक नाम का विस्मरण नहीं होगा, यह हमारी संपूर्ण पीढ़ी द्वारा अपनी आध्यात्मिक पहचान और अपनी धरोहर के प्रति किए गए अक्षम्य अपराध का प्रतीक होगा। हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को कंक्रीट के भवन, हेलीपैड और होटल तो शायद दे जाएँगे, किंतु वैराग्य और तप की वह जीवंत ऊर्जा नहीं दे पाएँगे जो इस भूमि का वास्तविक वैभव था। हम उन्हें एक सुंदर पर्यटन स्थल तो दे जाएँगे, किंतु एक जाग्रत “पीठ” नहीं दे पाएँगे, और इतिहास हमें इस सांस्कृतिक विफलता के लिए कभी क्षमा नहीं करेगा ।