कोई भी धर्म वास्तव में एक राजनीति शास्त्र ही होता है !

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः । माँ भगवती आप सब के जीवन को अनन्त खुशियों से परिपूर्ण करें ।

कोई भी धर्म वास्तव में एक राजनीति शास्त्र ही होता है जिसका उद्देश्य समाज में व्यवस्था स्थापित करना होता है !
क्योंकि मनुष्य स्वभावतः स्वेछाचारी होता है, लोग धर्म को माने इसलिए हर धर्म में एक भगवान गढ़ा जाता है, जो शास्ति का कार्य करता है !
किसी भी समाज में घोषित या अघोषित शासक और शासित ही होते हैं ।

वस्तुतः, प्रत्येक धर्म अपने बाह्य स्वरूप में एक राजनीति शास्त्र ही है, जिसका एकमात्र दृश्य उद्देश्य समाज में एक व्यवस्था स्थापित करना है । यह एक ऐसा कटु सत्य है जो धर्म की भावनात्मक और आलौकिक छवि के ठीक विपरीत प्रतीत होता है, किन्तु यदि हम मानव स्वभाव और समाज की संरचना का निर्मम विश्लेषण करें तो यही अंतिम सत्य उद्घाटित होता है । धर्म की आवश्यकता ही इसलिए उत्पन्न होती है क्योंकि मनुष्य स्वभाव से स्वेच्छाचारी है । उसकी चेतना अपनी अनियंत्रित इन्द्रियों की दासी है, जो उसे निरंतर इच्छाओं (काम), कामनाओं (तृष्णा) और आसक्तियों (मोह) के अंधकार में भटकाती रहती हैं । जब इन इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उत्पन्न होती है, तो यही ‘काम’ ‘क्रोध’ में परिवर्तित हो जाता है, और यही क्रोध हिंसा, संघर्ष और अराजकता को जन्म देता है । इस प्रकार, अपनी प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य स्वतंत्र नहीं, अपितु अपनी ही पाशविक प्रवृत्तियों का दास है । ऐसे स्वेच्छाचारी और आत्म-विध्वंसक प्राणियों के समूह को यदि उन्हीं के हाल पर छोड़ दिया जाए, तो ‘मात्स्यन्याय’ (बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को खा जाने का कानून) ही शेष रह जाएगा ।

इसी अराजकता के निवारण हेतु ‘धर्म’ नामक संस्था का प्रादुर्भाव होता है । यह एक ऐसा सूक्ष्म और शक्तिशाली राजनीति शास्त्र है जो स्थूल कानूनों से कहीं अधिक प्रभावी ढंग से कार्य करता है । राज्य का कानून (राजदंड) केवल व्यक्ति के बाहरी कृत्यों को नियंत्रित कर सकता है, किन्तु धर्म का विधान (ईश्वरीय दंड) व्यक्ति के विचारों और उसकी अंतरतम भावनाओं पर भी अंकुश लगाने का सामर्थ्य रखता है । इसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु, प्रत्येक धर्म में एक सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और न्यायकारी ‘ईश्वर’ की परिकल्पना की जाती है, जो वस्तुतः एक परम-शासक की भूमिका निभाता है । यह ‘ईश्वर’ एक ऐसा अदृश्य सम्राट है जिसकी दृष्टि से कोई भी कर्म छिपा नहीं है । स्वर्ग का अनन्त सुख एक प्रलोभन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, और नरक की अनन्त पीड़ा एक ऐसे भय के रूप में स्थापित की जाती है जिसके समक्ष बड़े से बड़ा स्वेच्छाचारी व्यक्ति भी नतमस्तक हो जाए । यह ‘ईश्वर’ और उसका भय ही वह धुरी है जिस पर धर्म रूपी राजनीति शास्त्र का सम्पूर्ण तंत्र घूमता है । इस तंत्र में पुरोहित, पैगंबर या अवतार उस ईश्वरीय शासक के सांसारिक प्रतिनिधि होते हैं, और धर्मग्रंथ उस शासक का संविधान होते हैं । इस प्रकार किसी भी समाज की अंतिम सच्चाई यही रह जाती है कि उसमें सदैव घोषित अथवा अघोषित रूप से केवल 2 ही वर्ग होते हैं – शासक (राजा, पुरोहित और अभिजात वर्ग) और शासित (साधारण जनमानस) ।

यह सम्पूर्ण व्यवस्था, जिसे हमारे शास्त्रों ने ‘प्रवृत्ति-मार्ग’ की संज्ञा दी है, सांसारिक जीवन के सुचारु संचालन के लिए निस्संदेह आवश्यक है । यह अविवेकी और असंयमित समाज के लिए एक अनिवार्य व्यवस्था है, जो उसे आत्म-विनाश से बचाती है । किन्तु यहाँ एक गहन प्रश्न उठता है – क्या मानव जीवन का उद्देश्य केवल एक अनुशासित पशु की भाँति जन्म लेना, जीना और मर जाना ही है ? क्या धर्म का चरमोत्कर्ष केवल एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है जहाँ मनुष्य किसी बाहरी शक्ति के भय से नियंत्रित रहे ? यदि ऐसा है, तो मनुष्य और एक प्रशिक्षित पशु में कोई मौलिक अंतर नहीं रह जाता । भारत के आत्म-ज्ञानी ऋषियों का उत्तर इससे कहीं अधिक गहन और क्रांतिकारी है । वे कहते हैं कि ‘प्रवृत्ति-मार्ग’ यात्रा का अंत नहीं, अपितु केवल आरम्भ है । यह आध्यात्मिक यात्रा की प्राथमिक पाठशाला है, जो केवल इसलिए आवश्यक है ताकि व्यक्ति इतना अनुशासित हो सके कि वह वास्तविक ज्ञान का अधिकारी बन सके ।

ऋषियों द्वारा दिखाया गया वास्तविक मार्ग ‘निवृत्ति-मार्ग’ का है, जहाँ धर्म का स्वरूप राजनीति शास्त्र से बदलकर ‘अध्यात्म-शास्त्र’ (आत्म-विज्ञान) हो जाता है । यह मार्ग शासित बनने के लिए नहीं, अपितु स्वयं का शासक बनने के लिए है । निवृत्ति-मार्ग की दृष्टि में, वास्तविक शत्रु बाहर का कोई सामाजिक अपराधी नहीं, अपितु स्वयं के भीतर बैठी अनियंत्रित इन्द्रियाँ और अहंकार है । वास्तविक बंधन किसी राजा या शासक का नहीं, अपितु स्वयं की कामनाओं और वासनाओं का है । इस मार्ग पर ईश्वर कोई बाहरी, भयभीत करने वाला दंडाधिकारी नहीं, अपितु प्रत्येक आत्मा के भीतर विद्यमान ‘साक्षी-चैतन्य’ है, जिसे जानना और जिसमें स्थित हो जाना ही जीवन का परम लक्ष्य है । यहाँ कर्मफल का सिद्धांत किसी राजा के न्याय की तरह नहीं, अपितु अग्नि के जलाने के स्वभाव की तरह एक शाश्वत और वैज्ञानिक नियम है ।

चूँकि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के अधीन होने के कारण स्वभाव से स्वेच्छाचारी है, अतः अविवेकी समाज को शासित करने हेतु ‘धर्म’ नामक राजनीति शास्त्र का निर्माण होता है और उसे लागू करने हेतु एक दंडाधिकारी ‘ईश्वर’ की परिकल्पना की जाती है । यह शासक और शासित की व्यवस्था अज्ञानी के लिए अनिवार्य है । किन्तु विवेकी पुरुष के लिए धर्म राजनीति नहीं, ‘अध्यात्म’ है, और उसका ईश्वर कोई बाहरी शासक नहीं, अपितु स्वयं का ‘आत्म-संयम’ है । जब साधक अपने चित्त की वृत्तियों का निरोध कर, अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेता है, तो वह ‘स्व-राज्य’ को प्राप्त करता है । वह अब किसी बाहरी शासक या किसी काल्पनिक ईश्वर के भय से नहीं, अपितु अपने आत्म-ज्ञान के प्रकाश से संचालित होता है । वह धर्म का पालन इसलिए नहीं करता कि उसे नरक का भय है, अपितु इसलिए करता है क्योंकि धर्म और सत्य अब उसका सहज स्वभाव बन चुका है । यही शासित से शासक बनने की वास्तविक और परम यात्रा है । अतः धर्म के 2 मुख हैं – एक वह जो राजनीति की भाषा में साधारण जन से बात करता है, और दूसरा वह जो अध्यात्म के मौन में साधक से बात करता है । एक का लक्ष्य व्यवस्था है, दूसरे का मोक्ष । एक का मार्ग भय है, दूसरे का अभय ।