धर्मशास्त्र या राजनीति शास्त्र? समाज की व्यवस्था का अदृश्य विधान !
शासक, शासित और सत्ता का अघोषित तंत्र !
यदि धर्म एक प्रकार का राजनीति शास्त्र है, जिसका उद्देश्य एक अदृश्य ईश्वर के माध्यम से समाज पर शासन करना है, तो किसी भी राजनीतिक व्यवस्था की तरह इसमें भी शासक और शासित का वर्ग विभाजन होना स्वाभाविक है। आपका यह कथन कि “किसी भी समाज में घोषित या अघोषित शासक और शासित ही होते हैं,” इस धार्मिक-राजनीतिक संरचना के मर्म को भेदता है। धर्म द्वारा स्थापित इस व्यवस्था में शासक और शासित का यह संबंध अत्यंत जटिल और बहुस्तरीय होता है।
सबसे पहले आते हैं ‘घोषित शासक’ । ऐतिहासिक रूप से, ये 2 वर्ग रहे हैं: पुरोहित वर्ग (ब्राह्मण, पादरी, उलेमा) और राजसी वर्ग (राजा, सम्राट)। इन दोनों के बीच एक गहरा और सहजीवी गठबंधन रहा है। पुरोहित वर्ग धर्म-ग्रंथों का व्याख्याकार होता है। वह यह तय करता है कि ईश्वर की इच्छा क्या है, धर्म क्या है और अधर्म क्या है। वह समाज के लिए नियम और विधान बनाता है। दूसरी ओर, राजा के पास उन नियमों को लागू करवाने के लिए भौतिक शक्ति (सेना, दंड) होती है। राजा को अपनी सत्ता के लिए वैधता (legitimacy) की आवश्यकता होती है, और यह वैधता उसे पुरोहित वर्ग प्रदान करता है। पुरोहित वर्ग यह घोषित करता है कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है, और राजा की आज्ञा का पालन करना ईश्वर की आज्ञा का पालन करने जैसा है। इसके बदले में, राजा पुरोहित वर्ग को संरक्षण, धन और सामाजिक सम्मान प्रदान करता है। यह ‘राजदंड’ और ‘धर्मदंड’ का गठजोड़ हजारों वर्षों तक सामाजिक व्यवस्था का केंद्र रहा है। शासक का यह वर्ग स्पष्ट रूप से घोषित और दृश्यमान होता है।
परंतु, इससे भी अधिक शक्तिशाली होते हैं ‘अघोषित शासक’ । इस धार्मिक-राजनीतिक व्यवस्था में सबसे बड़ा अघोषित शासक कोई व्यक्ति या वर्ग नहीं, बल्कि स्वयं वह ‘विचारधारा’ या ‘व्यवस्था’ है, जिसे धर्म कहा जाता है। यह विचारधारा समाज के प्रत्येक व्यक्ति के मानस में इतनी गहराई तक बैठा दी जाती है कि वह उसे ईश्वरीय और प्राकृतिक मानने लगता है। वर्ण-व्यवस्था या जाति-प्रथा इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जहां प्रत्येक व्यक्ति को जन्म के आधार पर एक सामाजिक भूमिका और दर्जा सौंप दिया जाता है। उसे यह सिखाया जाता है कि अपनी नियति को स्वीकार करना और अपने वर्ण के अनुसार कर्म करना ही उसका ‘स्वधर्म’ है, और ऐसा करने से ही उसे पुण्य और मोक्ष की प्राप्ति होगी। इस व्यवस्था को चुनौती देना धर्म को और ईश्वर को चुनौती देना माना जाता है। इस प्रकार, लोग स्वेच्छा से उस सामाजिक संरचना को स्वीकार कर लेते हैं जो उन्हें शासित करती है, क्योंकि वे मानते हैं कि यह स्वयं ईश्वर द्वारा निर्मित है। यह विचारधारा ही वह अघोषित शासक है जो राजाओं और पुरोहितों पर भी शासन करती है।
अब आते हैं ‘शासित’ वर्ग पर, अर्थात जनसाधारण। वे इस व्यवस्था को क्यों स्वीकार करते हैं? इसके कई मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारण हैं। पहला, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, ‘शास्ति’ का भय और पुरस्कार का प्रलोभन। नरक का भय और स्वर्ग की आशा उन्हें वर्तमान जीवन के कष्टों और अन्यायों को सहन करने की शक्ति देती है। उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि यदि वे इस जीवन में चुपचाप अपने हिस्से का दुःख भोग लेंगे और व्यवस्था के नियमों का पालन करेंगे, तो उन्हें मृत्यु के उपरांत इसका महान पुरस्कार मिलेगा। यह परलोक का आश्वासन एक शक्तिशाली ‘सेफ्टी वाल्व’ का काम करता है, जो सामाजिक विद्रोह की संभावना को कम करता है।
दूसरा कारण है, व्यवस्था द्वारा प्रदान की जाने वाली सुरक्षा और पहचान। धर्म व्यक्ति को एक समुदाय से जोड़ता है, उसे एक पहचान देता है, और जीवन के हर चरण (जन्म, विवाह, मृत्यु) के लिए संस्कार और रीति-रिवाज प्रदान करता है। यह जीवन की अनिश्चितताओं के बीच एक मनोवैज्ञानिक सुरक्षा और स्थिरता का भाव देता है। इस सुरक्षा और पहचान के बदले में, व्यक्ति उस व्यवस्था के नियमों को स्वीकार कर लेता है जो उसे शासित करते हैं।
तीसरा, इस विचारधारा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी शिक्षा, कथाओं, कर्मकांडों और त्योहारों के माध्यम से इतना सामान्य और स्वाभाविक बना दिया जाता है कि व्यक्ति उसके परे कुछ सोच ही नहीं पाता। उसके लिए वही एकमात्र सत्य और यथार्थ बन जाता है।
इस प्रकार, धर्म एक ऐसे परिपूर्ण राजनीतिक तंत्र का निर्माण करता है जहां एक घोषित शासक वर्ग (पुरोहित और राजा) होता है, एक विशाल शासित वर्ग (जनसाधारण) होता है, और इन सब के ऊपर एक अघोषित शासक (स्वयं विचारधारा) होती है जो एक सर्वव्यापी, सर्वज्ञ ईश्वर की अदृश्य सत्ता पर आधारित होती है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें शासित वर्ग अक्सर इस बात से अनभिज्ञ ही रहता है कि उस पर शासन किया जा रहा है; वह इसे ‘ईश्वरीय विधान’ मानकर स्वेच्छा से इसका पालन करता है। यह विश्लेषण धर्म के आध्यात्मिक पक्ष को नकारता नहीं है, परंतु यह उसके उस समाजशास्त्रीय और राजनीतिक यथार्थ को अवश्य उजागर करता है, जो उसे मानव इतिहास की सबसे स्थायी और प्रभावशाली शासन प्रणाली बनाता है।