जब मार्गदर्शक ही भटकाव का कारण बन जाएँ और ज्ञान के स्रोत ही व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में बदल जाएँ, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक और अत्यंत प्रासंगिक है कि “आम जनमानस किससे मार्गदर्शन प्राप्त करे?” इस गहन अंधकार और भ्रम के कोहरे में, जब हर कोई स्वयं को ही सच्चा गुरु और प्रामाणिक ज्ञाता घोषित कर रहा हो, तब एक सामान्य व्यक्ति के लिए सत्य और असत्य के बीच भेद करना लगभग असंभव हो जाता है । परंतु, सनातन संस्कृति की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वह किसी एक व्यक्ति, एक संस्था या एक ग्रंथ पर आपको आश्रित नहीं करती, बल्कि आपको स्वयं अपने भीतर के प्रकाश को खोजने के लिए प्रेरित करती है । इस विकट परिस्थिति का समाधान बाहर किसी व्यक्ति को खोजने में उतना नहीं है, जितना अपने भीतर की विवेक-बुद्धि को जाग्रत करने में है । मार्गदर्शन का सबसे पहला और सबसे प्रामाणिक स्रोत स्वयं साधक की अंतरात्मा और उसके भीतर स्थित विवेक है । हमारे ऋषियों ने हमें किसी व्यक्ति का अंधानुकरण करने की शिक्षा कभी नहीं दी; उन्होंने हमें “स्वाध्याय” अर्थात स्वयं के अध्ययन का मार्ग दिखाया । स्वाध्याय का अर्थ केवल ग्रंथों को पढ़ना नहीं, बल्कि अपने प्रत्येक कर्म, प्रत्येक विचार और प्रत्येक भाव का निष्पक्ष होकर निरीक्षण करना है । जब व्यक्ति इस मार्ग पर चलता है, तो उसकी विवेक-बुद्धि धीरे-धीरे प्रखर होने लगती है और उसे सही और गलत की पहचान होने लगती है ।
मार्गदर्शन का दूसरा अचूक और कालातीत स्रोत हैं – हमारे “शास्त्र” । श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद्, रामायण, और विभिन्न पुराण किसी व्यक्ति विशेष की निजी संपत्ति नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए ऋषियों द्वारा छोड़ी गई अमूल्य धरोहर हैं । ये वो “लैब मैनुअल” हैं, जिनमें उस दिव्य रसायन शास्त्र की प्रत्येक प्रक्रिया को विस्तार से समझाया गया है । आज के युग में जब ये ग्रंथ सरलता से सभी भाषाओं में उपलब्ध हैं, तो किसी मध्यस्थ पर पूरी तरह निर्भर रहने की क्या आवश्यकता है ? आम जनमानस को चाहिए कि वह इन ग्रंथों का स्वयं अध्ययन करे । हो सकता है कि प्रारंभ में सब कुछ समझ न आए, किन्तु निष्ठापूर्वक प्रयास करने से धीरे-धीरे उनका सार अवश्य ही हृदय में प्रकाशित होने लगता है । शास्त्र आपको बताते हैं कि पूजा में “भाव” का महत्त्व “सामग्री” से कहीं अधिक है । वे सिखाते हैं कि ईश्वर को आपकी भव्यता नहीं, आपकी भक्ति चाहिए ।
भगवान कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है, “पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति” – अर्थात जो कोई भी मुझे प्रेम से एक पत्ता, एक फूल, एक फल या केवल जल भी अर्पण करता है, मैं उसे स्वीकार करता हूँ । यह एक सीधा संदेश है कि पूजा की “रासायनिक प्रक्रिया” का सबसे मुख्य अभिकारक (Reactant) आपकी “भक्ति” और “श्रद्धा” है । यदि यह शुद्ध है, तो एक साधारण-सी प्रक्रिया भी आपको सटीक आध्यात्मिक परिणाम देगी । और यदि यही अशुद्ध है, तो करोड़ों रुपये खर्च करके किया गया महायज्ञ भी एक निष्फल कर्मकांड मात्र रह जाएगा ।
इन 2 आंतरिक और शास्त्रीय आधारों को मजबूत करने के बाद, यदि किसी बाहरी मार्गदर्शन की आवश्यकता महसूस भी हो, तो एक सच्चे मार्गदर्शक की पहचान करना सरल हो जाता है । सच्चा गुरु या मार्गदर्शक वह है जो आपको अपने ऊपर आश्रित नहीं बनाता, बल्कि आपको शास्त्रों और आपके अपने विवेक पर आश्रित होना सिखाता है । उसकी पहचान उसके वस्त्रों या उसके आश्रम की विशालता से नहीं, बल्कि उसके आचरण, उसकी सादगी, उसकी निस्वार्थता और उसकी आँखों की करुणा से होती है । वह आपको चमत्कार दिखाकर प्रभावित करने का प्रयास नहीं करेगा, बल्कि आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाकर आपको प्रेरित करेगा । वह आपकी श्रद्धा का उपयोग अपने लाभ के लिए नहीं करेगा, बल्कि आपकी श्रद्धा को आपकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए एक सीढ़ी बनाएगा । वह आपसे कुछ माँगेगा नहीं, बल्कि आपके भीतर जो कुछ भी नकारात्मक है, उसे माँग लेगा ।
अतः, आम जनमानस को निराश होने की आवश्यकता नहीं है । मार्ग भले ही कठिन हो गया हो, पर बंद नहीं हुआ है । समाधान है – प्रदर्शन की चकाचौंध से अपनी आँखें हटाकर अपनी अंतरात्मा के धीमे प्रकाश की ओर मुड़ना । भव्य आयोजनों की भीड़ से निकलकर स्वाध्याय के एकांत में बैठना । किसी तथाकथित चमत्कारी व्यक्ति के चरणों में नहीं, बल्कि शास्त्रों और संतों की शाश्वत वाणी में श्रद्धा स्थापित करना । जब साधक स्वयं प्रामाणिक होने का प्रयास करता है, तो उसे मार्गदर्शन भी प्रामाणिक ही मिलता है । क्योंकि इस सृष्टि का यह अटल नियम है कि जब शिष्य तैयार होता है, तो गुरु स्वयं प्रकट हो जाते हैं ।