अनादि काल से, मानव चेतना जब भी अपने सीमित अस्तित्व से ऊपर उठकर इस विराट ब्रह्मांड की ओर निहारती है, तो उसके भीतर एक मौलिक प्रश्न उठता है – इस सब का संचालक कौन है ! यह सूर्य जो प्रतिदिन उदय होता है, ये तारे जो रात्रि के अंधकार में टिमटिमाते हैं, यह जीवन जो एक सूक्ष्म बीज से अंकुरित होकर फैलता है, और यह मृत्यु जो सब कुछ पुनः अपने में समेट लेती है – इस संपूर्ण व्यवस्था के पीछे कौन सी शक्ति है ! इस परम, अदृश्य नियामक सत्ता को ही मनुष्य ने ‘ईश्वर’ की संज्ञा दी है। यह वह धुरी है जिसके चारों ओर अस्तित्व का चक्र घूमता है; यह वह मौन संगीत है जिस पर सृष्टि नृत्य करती है।
आपके सूत्र का प्रथम भाग इसी परम सत्य को उद्घाटित करता है: “इस सृष्टि की सर्वोच्च ‘अदृश्य सत्ता’ अर्थात् ‘ईश्वर’ केवल एक ही है।” यह समस्त अध्यात्म का आधारभूत सिद्धांत है। वेदों ने इसी सत्य को “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति” (सत्य एक ही है, जिसे ज्ञानीजन भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं) कहकर घोषित किया। कुरान ने इसे “ला इलाहा इल्लल्लाह” (अल्लाह के सिवा कोई दूसरा पूज्य नहीं) कहकर स्थापित किया। गुरु ग्रंथ साहिब ने “एक ओंकार सतनाम” कहकर उसी एक परमसत्ता की ओर संकेत किया। चाहे उसे ब्रह्म कहें, परमतत्त्व कहें, यहोवा कहें या द ग्रेट स्पिरिट – ये सभी नाम उसी एक अनाम, अरूप और असीम शक्ति के हैं जो इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त भी है और उससे परे भी है।
वह सत्ता ‘अदृश्य’ क्यों है ! इसलिए नहीं कि वह कहीं दूर बादलों में छिपी बैठी है। वह अदृश्य इसलिए है क्योंकि वह कोई ‘वस्तु’ या ‘दृश्य’ नहीं, बल्कि स्वयं ‘द्रष्टा’ है। वह वह चेतना है जिसके प्रकाश में आंखें देखती हैं, कान सुनते हैं और बुद्धि विचार करती है। वह इतना निकट है, इतना आंतरिक है कि उसे बाहर किसी वस्तु की भांति देखा नहीं जा सकता। जैसे आंख स्वयं को नहीं देख सकती, या चाकू स्वयं को नहीं काट सकता, उसी प्रकार हमारी चेतना अपने स्रोत, उस परम चेतना को, एक बाहरी वस्तु के रूप में अनुभव नहीं कर सकती। वह अनुभव का विषय नहीं, स्वयं अनुभव का आधार है।
परंतु, मनुष्य का मन सीमित है। वह रूप, रंग, नाम और गुणों के संसार में जीता है। उसके लिए किसी ऐसी सत्ता से संबंध जोड़ना लगभग असंभव है जिसका कोई रूप न हो, कोई गुण न हो, कोई नाम न हो। एक साधारण मनुष्य निराकार शून्य में अपने प्रेम, अपनी प्रार्थना, अपनी श्रद्धा को कहां टिकाएगा ! यहीं से आपके सूत्र का दूसरा, और अधिक व्यावहारिक, पहलू सामने आता है: “…वह प्राणियों की भिन्न भिन्न मानसिकताओं के द्वारा कल्पित परिकल्पनाओं के अनुसार भिन्न भिन्न नामों, रंग, रूप व स्वरूपों में उपास्य व पूजित है।”
यह ‘कल्पित परिकल्पना’ ईश्वर को सीमित करना नहीं, बल्कि उस असीम तक पहुंचने के लिए एक सीढ़ी का निर्माण करना है। यह उस निराकार सत्य को अपनी सीमित चेतना के पात्र में धारण करने का एक पवित्र प्रयास है। जिस प्रकार एक गणितज्ञ अनंत (infinity) के जटिल सिद्धांत को समझने के लिए एक प्रतीक () का उपयोग करता है, उसी प्रकार एक भक्त उस अनंत ईश्वर को समझने और उससे प्रेम करने के लिए एक स्वरूप की, एक मूर्ति की, एक नाम की रचना करता है।
यह परिकल्पना ‘भिन्न-भिन्न मानसिकताओं’ के कारण भिन्न-भिन्न होती है। प्रत्येक व्यक्ति का मन, उसके संस्कार, उसकी परवरिश, उसकी भौगोलिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि अद्वितीय होती है। इन्हीं अद्वितीय मानसिकताओं के दर्पण में जब उस एक ईश्वर का प्रतिबिंब पड़ता है, तो वह अनगिनत रूपों में दिखाई देता है।
जिस व्यक्ति की मानसिकता में न्याय और व्यवस्था का मूल्य सर्वोपरि है, वह ईश्वर को एक राजा, एक न्यायकर्ता के रूप में कल्पित करता है, जो धर्म की स्थापना करता है और अधर्म का नाश करता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्वरूप ऐसी ही मानसिकता का प्रतिबिंब है।
जिसकी मानसिकता में प्रेम, सौंदर्य और आनंद की प्रधानता है, वह ईश्वर को एक प्रेमी, एक सखा, एक रास-रचैया के रूप में देखता है। श्री कृष्ण का मनमोहक स्वरूप इसी कल्पना का साकार रूप है।
जिस व्यक्ति का मन संसार के कोलाहल से थककर शांति और वैराग्य खोजना चाहता है, वह ईश्वर को एक परम योगी, एक ध्यानी, कैलाश पर्वत पर समाधिस्थ शिव के रूप में देखता है।
जो प्रकृति की सृजन शक्ति और मातृत्व की कोमलता से अभिभूत है, वह उस परम सत्ता को जगदंबा मां के रूप में पूजता है – कभी दुर्गा के शक्ति रूप में, कभी लक्ष्मी के ऐश्वर्य रूप में, तो कभी सरस्वती के ज्ञान रूप में।
यह विविधता केवल सनातन धर्म तक ही सीमित नहीं है। विश्व के हर कोने में, हर संस्कृति ने अपनी मानसिकता के अनुसार उस एक अदृश्य सत्ता को स्वरूप प्रदान किया है। रेगिस्तान की कठोरता में पले-बढ़े धर्मों ने उसे एक निराकार परंतु सख्त अनुशासन वाले मालिक के रूप में देखा, तो वहीं प्रकृति के निकट रहने वाली सभ्यताओं ने उसे सूर्य, चंद्र, वायु और पृथ्वी के रूपों में पूजा।
यह समझना महत्वपूर्ण है कि ये भिन्न-भिन्न स्वरूप उस एक ईश्वर के प्रतियोगी या प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं। वे एक ही सूर्य के प्रकाश के अलग-अलग खिड़कियों से आते हुए प्रतिबिंब हैं। वे एक ही महासागर की अनगिनत लहरें हैं। कोई लहर छोटी है, कोई बड़ी, किसी का आकार अलग है, किसी का वेग, परंतु उन सब के मूल में एक ही जलतत्त्व है। इन स्वरूपों और परिकल्पनाओं के लिए लड़ना लहरों के आकार पर लड़ने के समान है, यह भूलकर कि सभी लहरें एक ही सागर का हिस्सा हैं। ये स्वरूप ईश्वर नहीं हैं, अपितु ईश्वर तक पहुंचने के द्वार हैं। हर द्वार अलग दिखाई दे सकता है, पर सभी एक ही परमधाम में खुलते हैं।