आध्यात्मिक सत्ता का दूसरा और समानान्तर महत्वपूर्ण लक्ष्य आत्मिक तृप्ति है । यह तृप्ति किसी बाहरी वस्तु, उपलब्धि या संबंध से उत्पन्न होने वाली संतुष्टि से गुणात्मक रूप से भिन्न है । भौतिक संसार से प्राप्त होने वाली संतुष्टि क्षणभंगुर होती है, इच्छाओं पर आधारित होती है, और सदैव किसी बाहरी वस्तु या परिस्थिति पर निर्भर करती है । यह समुद्र के खारे पानी को पीने जैसा है – जितना पीते हैं, प्यास उतनी ही बढ़ती है । इसके विपरीत, आत्मिक तृप्ति एक आंतरिक अवस्था है जो किसी भी बाहरी कारण पर निर्भर नहीं करती । यह पूर्णता का अनुभव है, स्वयं में ही पर्याप्त होने का बोध है ।
दार्शनिक दृष्टिकोण से, यह तृप्ति आत्मा के अपने वास्तविक स्वरूप में स्थित होने से उत्पन्न होती है । जब आत्मा अज्ञान और अहंकार के बंधनों से मुक्त होकर अपनी दिव्य, अविभाज्य प्रकृति को जान लेती है (जैसा कि अद्वैत वेदांत में वर्णित है), तो उसे एक ऐसी पूर्णता का अनुभव होता है जिसमें किसी चीज की कमी नहीं होती । जहाँ कमी नहीं होती, वहाँ इच्छा नहीं होती । जहाँ इच्छा नहीं होती, वहाँ असंतोष नहीं होता । यही आत्मिक तृप्ति है । यह ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार का स्वाभाविक परिणाम है ।
आध्यात्मिक सत्ता इस आत्मिक तृप्ति की प्राप्ति में प्रत्यक्ष रूप से सहायक होती है । यह हमें भीतर की ओर मुड़ने की शक्ति देती है, जहाँ तृप्ति का वास्तविक स्रोत स्थित है । यह मन की चंचल लहरों को शांत करती है, जो बाहरी इच्छाओं के पीछे भागती रहती हैं । यह हमें भौतिक संसार की माया को समझने में मदद करती है, जिससे हम उससे अत्यधिक अपेक्षाएं रखना छोड़ देते हैं । जब हम अपनी चेतना को आध्यात्मिक सत्ता के सही उपयोग (ध्यान, मंत्र जप, निस्वार्थ कर्म) से शुद्ध करते हैं, तो हम धीरे-धीरे उस आंतरिक शांति और आनंद के स्रोत के प्रति अधिक ग्राह्य हो जाते हैं ।
यह तृप्ति कोई उपलब्धि नहीं है जिसे ‘हासिल’ किया जाए, बल्कि यह एक ‘अवस्था’ है जिसमें ‘स्थित’ हुआ जाए । यह प्रयास का अंत है, न कि और अधिक प्रयास करने का कारण । यह किसी गंतव्य पर पहुँचना नहीं, बल्कि यह जानना है कि आप पहले से ही वहाँ हैं । आध्यात्मिक सत्ता आपको इस सत्य का अनुभव कराती है ।
अनुसंधानात्मक दृष्टिकोण से, विभिन्न धार्मिक परंपराओं में इस आंतरिक तृप्ति का वर्णन किया गया है । सूफीवाद में इसे ‘फकीरी‘ या ‘फना‘ (स्वयं का विलय) के बाद की अवस्था के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ बाहरी दुनिया से कोई मोह नहीं रहता । बौद्ध धर्म में निर्वाण (निर्वाण) की स्थिति, जहाँ सभी दुःख और इच्छाओं का अंत हो जाता है, आत्मिक तृप्ति का ही एक रूप है । भक्तियोग में भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रेम से मिलने वाला आनंद (भक्ति रस) भी आत्मिक तृप्ति का एक मार्ग है ।
यह तृप्ति भीतर से छलकती है और बिना किसी प्रयास के साधक के जीवन में शांति, धैर्य, और संतोष लाती है । जिसे यह तृप्ति प्राप्त हो जाती है, उसे फिर बाहरी दुनिया से कुछ भी सिद्ध करने, प्राप्त करने या दिखाने की आवश्यकता नहीं रहती । उसकी शक्ति भीतर होती है, बाहर नहीं । उसे किसी भौतिक परिणाम की चिंता नहीं होती, क्योंकि वह स्वयं में पूर्ण होता है ।
यहीं पर आध्यात्मिक सत्ता के प्रदर्शन और भौतिक प्रयोग की विनाशकारी प्रकृति स्पष्ट होती है । जब कोई साधक अपनी आध्यात्मिक सत्ता का प्रदर्शन करता है, तो वह दूसरों से मान्यता और प्रशंसा चाहता है । यह इच्छा आत्मिक तृप्ति की पूर्णता के विपरीत है; यह कमी और असुरक्षा की भावना से उत्पन्न होती है । जब कोई भौतिक उद्देश्यों के लिए शक्ति का उपयोग करता है, तो वह यह दर्शाता है कि वह अभी भी भौतिक संसार से तृप्ति की तलाश कर रहा है । यह आत्मिक तृप्ति के उस अनुभव से दूर है जहाँ भौतिक इच्छाएं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं ।
प्रदर्शन और भौतिक प्रयोग आत्मिक तृप्ति के मार्ग को अवरुद्ध करते हैं । वे साधक को फिर से बाहरी दुनिया की ओर धकेल देते हैं, जहाँ असंतोष और अतृप्ति का चक्र चलता रहता है । यह तृप्ति के आंतरिक स्रोत को नजरअंदाज करना है और बाहरी, इलूसरी सोर्स से ‘चार्ज’ होने का प्रयास करना है । यह स्वचालित रूप से आत्मिक विनाश की ओर ले जाता है क्योंकि यह आत्मा को उसके वास्तविक लक्ष्य और उसकी स्वाभाविक अवस्था से दूर खींचता है । आत्मिक तृप्ति ही आध्यात्मिक यात्रा का परम फल है, और आध्यात्मिक सत्ता इसी फल की प्राप्ति का साधन है । इसका दुरुपयोग इस फल को कभी न चख पाने का कारण बनता है ।